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प्रासादमारने
शिवालय उत्थापनदोष
स्वस्थाने संस्थितं यस्य विप्रवास्तुशिवालयम् ।
अचाल्यं सर्वदेशेषु चालिते राष्ट्रविभ्रमः ॥५॥ अपने स्थान में यथास्थित रहा हुप्रा और ब्राह्मणों से वास्तु पूजन किया हुआ, ऐसे शिवालय को चलायमान नहीं किया जाता। क्योंकि अचल ( चलायमान न हो), को यदि चलायमान किया जाय तो राष्ट्रों में परिवर्तन होता है ॥५॥ जीर्णोद्धार का पुण्य---
वापीकूपतडागानि प्रासादभवनानि . च ।
जीर्णान्युद्धरते यस्तु पुण्यमष्टगुणं लभेत् ॥६॥ वाडी, कुमा, तालाब, प्रासाद ( मंदिर । और भवन, ये जाग हो गये हों तो उनका उद्धार करना चाहिये । जीर्णोद्धार करने से प्रा3 गुना फल होता है ।।६।। जीर्णोद्धार का वास्तु स्वरूप-----
तद्रपं तत्प्रमाणं स्यात् पूर्वमूत्रं न चालयेत् ।
हीने तु जायते हानि-रधिके स्वजनस्यः ' ॥७॥ जोशीद्धार करते समय पहले का वास्तु जिस प्रकार और जिस मानका हो, उसी प्राकार और उसो मानका रखना चाहिये । अर्थात् पहले के मानसूत्र में परिवर्तन नहीं करना चाहिये। प्रथम के मान से कम करे तो हानि होवे और अधिक करे तो स्वजन की हानि होवे
वास्तु द्रव्याधिकं कुर्यान्मृत्काष्ठे शैलजं हि वा ।
शैलजे धातुज वापि धातुजे रत्नजं तथा ॥८॥ जीपीद्धार करते समय प्रथम का वास्तु अल्पद्रव्य का हो तो वह अधिक द्रव्यका बनाना चाहिये । जैसे-प्रथमका वास्तु मिट्टी का हो तो काट का, काष्ठ का हो तो पाषाण का, पाषाण का हो तो धातु का और धातु का हो तो रस्म का बनाना थे यस्कर है ॥८॥ विङमढ दोष
पूर्वोत्तरदिशासूढे मूद पश्चिमदक्षिणे । तत्र मूढममूदं वा यत्र तीर्थ समाहितम् ।।६।।
१. 'तु धनक्षयः।"