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अथ प्रासादमण्डनेऽष्टमः साधारणोऽध्यायः
sar साधारणोऽध्यायः सर्वलचणसंयुतः ।
विश्वकर्म प्रसादेन
विशेषेसा प्रकथ्यते ||१||
श्री विश्वकर्मा के प्रसाद से सर्व लक्षणों वाला साधारण नाम का यह प्राठवां अध्याय
कुछ विशेषरूप से कहा जाता है ॥१॥
शिवलिंग का न्यूनाधिक मान
'मानं न्यूनाधिकं वापि स्वयंभूवाणरत्नजे ।
घटितेषु विधातव्य-मर्चाल शामतः ॥ २ ॥
स्वयंभूलिंग, बालिंग और रत्नका लिंग, ये मान में न्यूनाधिक हो तो दोष नहीं है। परन्तु घड़ा हुआ शिवलिंग और मूर्ति तो शास्त्र में कहे हुए मानानुसार ही होना चाहिये ||२||
वास्तुदोष -
बहुलेपमन्यले
समसन्धिः शिरोगुरुः । सशन्यं पादहीनं तु तच्च वास्तु विनश्यति || ३॥
अधिक लेपवाला, कम लेपवाला, सांध के ऊपर सांध वाला, ऊपरका हिस्सा मोटा और नीचे पतला, वायवाला और कम नींद वाला, ऐसे वास्तु का शीघ्र ही नाश हो जाता है || ३ ||
निषेधवास्थ्य
अन्य वास्तुच्युतं द्रव्यमन्यत्रास्तुनि योजयेत् ।
प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे तु न वसेद् गृही ||४||
feat मकान प्रादि का गिरा हुआ ईंट, चूना, पाषाण और लकड़ी यादि वास्तु द्रव्य, यदि मंदिर में लगावें तो देव प्रपूजित रहें और घरमें लगावे तो मालिक का निवास न रहे। अर्थात् मंदिर और गृह शून्य रहे ||४||
१. 'मा' के स्थान पर 'वृष' होना चाहिये। क्योंकि अपराजित पृथ्या सूत्र० १०६ श्लोक ११ में लिखा है कि देव म्यूनाधिकं वारी रत्नजे व स्वयम्भूति' पर्याद वाण एल और स्वयंभूसिंग के मंदिर में नंदी का are gettes at हो सकता है।