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सप्तविंशति मण्डप ----
सप्तविंशति
ये user विश्वकर्मणा ।
तलैस्तु विषैस्तुनः नः वन्नैः समैस्तथा ॥ २६ ॥
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rest areatara द्विद्विस्तम्भविवद्धनात् ।
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यावत् षष्टिश्चतुषु क्ताः सप्तविंशतिमण्डवाः || २७॥
श्री विश्वकर्मा ने जो सत्ताईस प्रकार के मंडप कहे हैं उनके तल सम मथवा विषम कर सकते हैं, परन्तु क्षरण ( खंड ? ) और स्तंभ ये सम संख्या में ही रखना चाहिये। पहला मंडप बारह स्तंभ का है। पीछे दो २ स्तंभ की द्वि चौसठ स्तंभ तक बढ़ाने से सत्ताईस मंडप होते है ।। २६-२७।।
विशेष जानने के लिये देखें समरांगण सूत्रधार प्रध्याय ६७ और अपराजित पृच्छा सूत्र १८६ वां । इन दोनों में प्रथम मंडप चौसठ स्तंभों का लिखा है, पीछे दो २ स्तंभ घटाने से सत्ताईसव मंडप बारह स्तंभ का बनाने को कहा है।
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चैत्रा स्वपशोन मेकाले ऽष्टास्रमुच्यते । कलासः क्षेत्रषभागास्तत्परंशेन संयुतः ॥ २८ ॥