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सप्तमोऽध्यायः
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ज्येष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठ माल का, मध्यममान के प्रासाद मैं मध्यम मान का और कनिधमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान का बलासक किया जाता है। यह प्रासाद से एक, दो तीन, चार, पांच, छह अथवा सात पद के अन्तर से (दूर ) बनाया जाता है . १४013
मूलपासादवद् द्वारं मण्डपे च बलाणके ।
न्यूनाधिकं न कर्तव्यं दैर्ये हस्ताङ्गुलाधिकम् ॥४१॥ मंडप का द्वार और बलारएक का द्वार मुख्य प्रासाद के द्वार के बराबर रखना चाहिये । यदि बढ़ाने की आवश्यकता हो तो द्वार की ऊंचाई में हस्तांगुल ( जितने हाथ का हो उतने अंगुल ) बढ़ा सकते हैं । यह नीचे के माग में बताना पाहिद, क्यों कि न तो सब रानसूत्र में रखा जाता है ऐसा शास्त्रीय कथन है ।।४।। उत्तरंग का पेटा भाग
पेटकं चौसरङ्गानां सर्वेषां समसूत्रतः ।
अङ्गणेन समं पेटं जगत्याश्चोतरङ्गाजम् ।।१२।। ___ सब उत्तरंग का पेटा भाग ( उत्तरंग के नीचे का भाग) समसूत्र में रखना चाहिये और अगली के द्वार के उत्तरंग का पेटा भाग प्रासाद के प्रांगन जगती के मथला बराबर रखना चाहिये ।।४२॥
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पांच प्रकार के बालाणक
जगत्यो चतुष्किका' वामनं तद् बलाणकम् ।
पामे च दक्षिणे द्वारे वेदिकामसवारणम् ॥४३॥ जगतो के आगे की चौकी के ऊपर जो बलारणक किया जाता है, वह वामन नामका बलाणक कहा जाता है । उसके बायीं और दाहिनी मोर के द्वार पर वैदिका और मतवारण किया जाता है ।।४३॥
ऊर्धा भूमिः प्रकर्तव्या नृत्यमण्डपस्त्रतः । मत्तवारणं वेदी च वितानं तोरणैर्युता ॥४४॥
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पपराजित छ सूत्र १२२ श्लोक १० में एक से पाट पदकेतरे भी बमामा लीखा है। १'पतुष्की या'।