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। मस्तके तस्य छाद्यस्य भृङ्गयुग्मं प्रदापयेत् ।
सितस्तदा नाम ईश्वरस्य सदा प्रियः ॥२४॥ रस्वशीर्ष प्रासाद के भन्न के तीन उरुगों में से एक कम करके उस स्थान पर मतालम्ब (महाम) बनावें और उसके खाद्य के ऊपर दो शृंग बहावें । ऐसा सिवभृग नाम का प्रसाद ईसबर को हमेशा प्रिय है ॥२४॥
शृंग संख्या-कोर १२, प्ररपे १६, उपरथे भद्रे १६ एक मिलर, कुल ५३ १३-भूधर और १४-भुवनमंडन प्रासाद
तिलकं यच परथे भूधरो नाम नामतः ।।
छापमझे तु तिलकं नाम्ना भुवनमण्डनः ॥२५॥ सितग प्रासाद के उपरम ऊपर एक २ तिलक चढ़ावें, तो भूधर नाम का प्रासाद होता है और पाय के दोनों शृङ्गों के ऊपर एक २ तिलक चढ़ावें तो भुवनमंडन नाम का प्रासाद होता है ॥२शा १५-सोविजय और १६-क्षितिबल्लभ प्रासाद--
भूजार्य थोपरथे तिलकं कारयेत् सुधीः । प्रैलोक्यविजयो भद्रं शृङ्गण चितिवनमः ॥२६॥
इति समाङ्गा सक्षप्रासादाः । पदि उपरय के ऊपर दो शृग और एक तिलक किया जाय तो त्रैलोक्यविजय नामका प्रासाद होता है पौर भद्र के कार एक शृग अधिक बढाया जाय तो क्षितिबल्लभ नाम का प्रासाद होता है ॥२६॥
भूगसंस्था-कोणे १२, प्ररथे १६ उपरथे १६ भद्रे १२ एक शिखर कुल ५७, तिलक ६ १७-महीपर प्रासाद--
दशमागकते . क्षेत्रे भद्रार्थ भागमानतः । अपः प्रतिरथाः कणों भागभागाः समो भवेत् ॥२७॥ को प्रतिरथे भद्रे के द्वे भू प्रकारयेत् । स्पोपरये तिलकं प्रत्यक्षं च . रथोपरि ॥२८॥... मवालम्पयुतं मद्रं प्रासादोऽयं महीपरः ।