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गंधमादन प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक उर श्रृंग कम करके उपरप के ऊपर एक २ शृंग चढ़ावें, तो सागसुन्दर नाम का प्रासाद होता है। इसके मद्रके अपर एक २ उराग फिर चढ़ावें तो विजयानन्द नामका प्रासाद होता है ॥३१॥
शृंगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६, रपे ८, भद्रे ८ उपरथे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर कुल ५७ २३-सागतिलक प्रासाद
मत्तालंयुतं भद्र-मुरुङ्ग परित्यजेत् ।
शृङ्गादयं च छाधोर्चे सांगतिलकस्तथा ॥३२॥ विजयानंद प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक २ उरुग कम कर के मसालंग (गवाक्ष) बनावें और इस गवाक्ष के छाध के ऊपर दो श्रृंग रक्खें, तो सग तिलक नाम का प्रासाद होजाता है ||३२!
शृंगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६ रथे ८ उपरथे ८, प्रत्येग ६, भद्रे और गवाक्षे १६, एक शिखर कुल ६५ ग २४-महाभोग प्रासाद---
उत्शृङ्ग ततो दद्यान्मत्तालम्बसमन्वितम् ।
महाभोगस्तदा नाम सर्वकामफलप्रद ॥३३॥ सर्वांग तिलक प्रासाद के गवाक्ष वाले भद्र के ऊपर एक २ उभंग अधिक बढ़ाने से महाभोग नाम का प्रासाद होता है । यह सब कार्य के फल को देने वाला है ॥३३॥ २५-मेरुप्रासाद---
कर्णे रथे प्रतिरथे शृङ्गसुपरथे तथा । मेरुरेव समाख्यातः सर्वदेवेषु पूजितः ॥३४
इति नवागा नवप्रासादाः । कर्ण, रथ, प्रतिरथ और उपरय इन सबके ऊपर एक २ शृंग अधिक चढ़ावें तो मेरू नामक प्रासाद होता है, यह सब देवों में पूजनीय है ॥३४।। प्रासावप्रदक्षिणा का फल---
'प्रदक्षिणात्रयं कार्य मेरुप्रदक्षिणायतम् ।
फलं स्याचलराज्यस्य मेरोः प्रदक्षिणाकृते ॥३॥ १. 'प्रदक्षिणात्रये स्व-मेरी पुसा व वत्फलम् ।
इप्रकाशैलजे मेरी तत्फलं प्रदक्षिणाकृते ।।' इति पाठान्तरे ।