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पञ्चमोऽध्यायः
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समयोरस प्रासाद के तलका दस भाग करें। उनमें भद्रार्ध, कर्ण प्रतिकर्ण, रब पौर उपरथ से प्रत्येक एक २ भाग का बनावें और इनका निर्गम भी एक २ भाग का रसखें। भव का निर्गम प्राधे भाग का रखें । कोना, प्रतिरथ और भद्र के ऊपर दो २ श्रृंग तथा रथ और उपरथ के ऊपर एक २ तिलक पढ़ायें। एवं रथ के ऊपर प्रत्यंग चढायें । भद्र भत्तालंब (Tar) वाला बनावें। ऐसा महीधर नाम का प्रासाद है ॥२७-२८॥
श्रृंगसंख्याकोणे ८, प्ररथे १६, भद्रे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर कुल ४१ । तिलकरखे , उपरणे १८-कैलास प्रासादः
भद्रे शृवं तृतीयं च कैलासः ' शङ्करप्रियः ॥२६॥
महीधर प्रासाद के भद्र के ऊपर तीसरा एक शृंग अधिक पढ़ाई तो कैलाश नाम का प्रसाद होता है। यह शंकर को प्रिय है ॥२६॥
___शृगसंख्या-कोणे ८, प्ररथे १६, भद्र १२, प्रत्यंग ८ एक शिखर कुल ४५ । तिलक रथे ८ उपरथे ५ १६-भव मंगल और २०-गंधमादन प्रासाब--- भद्रे त्यक्त्वा रथे भृङ्ग नवमङ्गल उच्यते । तथा भद्र पुनर्दद्याद तदासौ गन्धमादनः ॥३०॥
__ फैलाश प्रासाद के भद्र के ऊपर से एक उरुग कम करके रप के कार एक २ शृंग पढ़ा तो नवर्मगल नामका प्रासाद होता है। यह नवमंगल प्रासाद के भर के ऊपर एक ऊरग अधिक चढ़ावें तो गंधमादन नाम का प्रासाद होता है ॥३०॥
___ शृंगसंख्या-४६ | कोणे ८, प्ररथे १६, भद्र ८, रथे ८, प्रत्यंग ८, एक शिखर । तिलक ८ उपरणे २१- सर्वाङ्गसुन्दर और २२-विजयानन्द प्रासादभद्रे त्यक्त्वा चोपरथे शृङ्ग सङ्गिसुन्दरः ।
भद्र दद्यात् पुनः शृङ्ग विजयानन्द उच्यते ॥३१॥ १. 'माम नामतः।
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