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पसमोऽध्यायः
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१०-माहेन्दप्रासाद--
चतुरस्र ऽष्टमिक्ते कर्ण प्रतिरथं रथम् । भद्राय भागमागं च भागान विनिर्गमम् ॥२०॥ पारिमार्गान्तरयुक्ता रथाश्च तुल्पनिर्गमाः । शृङ्ग-युग्मं च तिलकं कर्णे देतु प्रतिरथे ॥२१॥ एक चोपरथे भद्रे त्रीणि त्रीणि चतुर्दिशि । शिखरं पञ्चविस्तारं माहेन्द्रो राज्यदो नृणाम् ॥२२॥
इति माहेन्द्रः । समचौरस तल का पाठ भाग करें। इनमें कर्ण, प्रतिरथ, उपरथ और भद्रार्ध, ये प्रत्येक
एक २ भाग का रक्खें। भद्रका निर्गम प्राधा भाग का रक्खें ये सब अंग वारिमार्ग वाले बनायें । कर्ण, प्रतिरथ और उपरथ का निर्गम एक २ भाग रखें। कर्ण के अपर दो २ शृंग और एक तिलक बढा, प्रतिरथ के ऊपर दो २ शृंग, उपरथ के ऊपर एक २ शृग और भद्र के अपर तीन २ उरभृग चढ़ावें । मूल शिखर का विस्तार पात्र भाग रक्खें। ऐसा माहेन्द्र नाम का प्रासाद मनुष्यों को राज्य देनेवाला है ॥२० से २२॥
शृगसंस्था-कारणे ८, प्ररथे १६ उपरथे ८, भद्रे १२ एक शिखर एवं कुलं ४५, तिलक, ४ कोणे ।
११-रत्नशोषं प्रासाद-- ___ कर्णे शृङ्गत्रयं शेषं पूर्ववद् रत्नशीर्षक: ।
इति रत्नशीर्षः __माहेन्द्र प्रासाद के कण के ऊपर यदि शील तृग चदामा नाय तो उस प्रासाद का नाम रत्नशीर्ष होता है।
शृंग संख्या--कोणे १२, प्ररथे १६, उपरथे ८ भद्रे १२ एक शिखर, कुल ४६ १२-सितम्भृग प्रासाद---
स्यक्त्वैकमुहं भद्रस्य मसालम्बं च कारयेत् ॥२३॥ मान्हेद्र प्रासाद
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की मात्र प्रसाद कलमinnath PARMANAN
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पैशम्यादि
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--yantipuri
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