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प्रासादमण्डने
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पाठ तल विभक्तियों में से पहले पांच तल विक्ति के अनुकम से 4, दो, एक, छह और तीन प्रासाद हैं। छट्टो तल विभक्ति का एक प्रासाद, सातवीं तल विभक्ति के सात और पाठवीं तल विभक्ति के तीन प्रासाद हैं ॥१८॥
भेदाः पश्चाशदेकैकं प्रोक्ताः श्री विश्वकर्मणा ।
तेनैकस्मिस्तलेऽपि स्युः शिखराणि बहून्यपि ॥१६॥ केसरी प्रादि प्रत्येक प्रासाद के पचास २ भेद श्री विश्वकर्माजी ने किये हैं। एकही प्रासाद । तल के ऊपर अनेक प्रकार के शिखर बनाये जाते हैं ॥१६॥
रधिका सिंहकर्ण च भद्रे कुर्याद् गवाक्षकान् ।
प्रत्यङ्गस्तिलकाय श्च शोमितं सुरमन्दिरम् ॥२०॥ रथिका, सिंहकर्ण, भद्र में गवाक्ष, प्रत्यंग और तिलक प्रादि प्राभूपरणों से देवालय को सुशोभित बनावें ॥२०॥
प्रासादाः केसरीमुख्याः सर्वदेवेषु पूजिवाः । पुरराज्ञः प्रजादीनां कत्तु कल्याणकारिकाः ॥२१॥
इति सर्यादिप्रासादाः पञ्चविंशतिः । केसरी मादि ओ पच्चीस प्रासाद हैं, वे सब देवों के लिये पूजित हैं। इसलिये बनाने वाले तथा नगर के राजा और प्रजा का कल्याण करने वाले हैं ॥२१॥ निरंधार प्रासाद--
पत्रिंशत्करतोऽधस्ताद यावद्धस्तचतुष्टयम् ।
विना भ्रमनिरन्धाराः कर्तव्याः शान्तिमिच्छता ॥२२॥ छत्तीस हाथ से न्यून चार हाथ तक, अर्थात् चार हाथ से लेकर छत्तीस हाय तक के विस्तार वाले प्रासाद शान्ति को चाहने वाले शिल्पी भ्रम (परिक्रमा ) विनाके निरंधार (प्रकाश वाले) भी बना सकता है । निरंधार प्रासादको परिकमा नहीं बनावें ।।२२।। प्रासावतलाकृतिः
वास्तोः पञ्चविध क्षेत्रं चतुरखें तथायतम् ।
- धृतं वृत्तायतं चैवाष्टास्त्र' देवालयादिषु ॥२३॥ १. अष्टास देवस्यानयम् ।
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