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अथ प्रासादमण्डने सप्तमाऽध्यायः मंडप विधान-----
रत्नगर्भावनं सूर्यचन्द्रतारावितानकम् ।
विचित्रं मण्डपं येन कृतं तस्मै नमः सदा ॥१॥ लगे हुए रत्नबाले तथा सूर्य चंद्रमा और तारे जैसा तेजस्वी वितान ( गुम्बद का पेटा भाग चांदनी) वाले, ऐसे अनेक प्रकार के मण्डपों को जिसने रचना की है, उनको हमेशा नमस्कार है ॥१॥ गर्भानमंडप ----
कर्णगृढा विलोक्याश्च एकत्रिद्वारसंयुताः ।
प्रासादाग्रे प्रकर्तव्याः सर्वदेवेषु मण्डयाः ॥२॥ गूढ़ कोना वाला अर्थात् दीवार बाला अथवा विना दीवार वाला खुला, तथा एक अथवा तीन द्वारवाला, ऐसा मंडप सब देवों के प्रासाद के आगे किया जाता है ।।२।। जिनप्रसाद के मंडप-----
गूढस्त्रिकस्तथा नृत्पः क्रमेण मण्डपास्त्रयः ।
जिनस्याग्रे प्रकर्तव्याः सर्वेषां तु बलायकम् ॥३॥ जिनदेव के गर्भगृह के आगे गूढ मण्डप, इसके प्रागे चौकी वाले त्रिकमडप और इसके मागे नृत्य मंडप, इस प्रकार अनुक्रम से तीन बनाने । बाकी सब देवों के गर्भगृह के मागे बलाणक बनावें ॥३॥ मंडपके पांच मान
समं सपादं प्रासादात साधं च पादोनद्वयम् ।।
द्विगुणं वा प्रकस यं मण्डपं पञ्चधा मतम् ॥४॥ मंडर का नाप प्रासाद के बराबर, सवाया, डेठा, पौने दुगना अथवा दुगना किया जाता है । ये मंडप के पांच प्रकार के नाप है ॥४॥
अपराजितपृच्छा सूत्र १८५ में सवा दो गुणा और ढाई गुणा ये दो प्रकार का अधिक नाप मिलाकर सात प्रकार के मंडप के नाप लिखे हैं ।