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सप्तमोऽध्याय:
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प्रासादमान से मंडप का नाप--
समं सपादं पञ्चाशत्पर्यन्तं दशहस्तकान (त:) । दशान्तं पञ्चतः साधं द्विपादोनं चतुष्करे ॥५॥ त्रिहस्ते द्विगुणं द्वये क-हस्ते कुर्याच्चतुष्किकाम् ।
प्रायेण मण्डपं साधं द्विगुणं प्रत्यलिन्दकैः ॥६॥ दश हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद को समान अथवा सवाया, पांत्र हाथ से यश हाथ तक के प्रासाद को डेढा, चार हाथ के प्रासाद को पौने दो गुना और सीन हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को दुगुना मंडप बनाना चाहिये। दो और एक हाथ के प्रासाद को सिर्फ चौकी बनावें । प्रायः करके मण्डप का प्रभाग डेहा या दुगना मलिन्द के अनुसार जानना चाहिये ।५-६।। गुमट के घंटा कलश और शुकनास का मान---
मण्डपे स्तम्मपट्टादि-मध्यपट्टानुसारतः ।
शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका ॥॥ मण्डप में स्तंभ और पाट प्रादि सब गर्भगृह के पट्ट आदि के अनुसार रखना चाहिये । मण्डप के गूमट के घंटा कलश की ऊंचाई शुकमास के बराबर रखना चाहिये । कम या अधिक नहीं रखनी चाहिये ॥७॥
अपराजितपृच्छा सूत्र १८५ श्लोक १० में लिखा है कि-'शुकनाससमा घण्टा न न्यूना न ततोऽधिका।' प्रर्थात् गुमट के प्रामलसार कलश की ऊंचाई शुकनास के बराबर रक्खें। न न्यून न अधिक रक्खें। मंडप के समविषम तल
मुखमएडपसबाटो यदा भिस्यन्तरे भवेत् ।
न दोषः स्तम्भपट्टाध : समं च विषमं तलम् ॥८॥ गर्भगृह और मुखमंडप के बीच में यदि भित्त (धार) का अंतर हो तो मंडप में स्तंभ, पट्ट और तल ये समविषम किया जाय, तो दोष नहीं है । अर्थात् अपर के श्लोक में कहा है किगर्भगृह के पट्ट स्तंभ के अनुसार बराबर में मंडप के पट्ट स्तंभ आदि रखा जाता है। परन्तु इन दोनों के बीच में दीवार का अंतर हो तो सम विषम रखा जाय तो दोष नहीं माना जाता 11