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पञ्चमोऽध्यायः
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सुवर्ण के मेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणा करने से दो कान होता है, उतना फल इस पाषाण के बने हुये मेरुप्रासाद की तोन प्रदक्षिणा करने से होता है ।।३।।
वैराज्यप्रखास्तत्र नागरा ब्रह्मणोदिताः ।
वल्लभाः सर्वदेवानां शिवस्यापि विशेषतः ॥३६॥ इति श्री सूत्रधार मण्डनविरपिते प्रासादमण्डने वास्तुशास्त्रे वैराज्यादिप्रासाद
पञ्चविंशत्यधिकार नाम पञ्चमोऽध्यायः |||* धराज्यादि यह पचीस प्रासाद नागर जाति के हैं । ये स्वयं ब्रह्माजी के कहे हुए है। इसलिए ये प्रासाद सब देवों के लिये प्रिय है। उनमें भी महादेवजी तो विशेष प्रिय हैं ।।३६॥ इति श्री पंडित भगवानदास जैन विरचित प्रासाद मण्डनके वैराज्यादी प्रासाद
नामके पांचवे अध्यायकी सुबोधिनी नाम्नी भाषाटीका समाप्ता।
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विशेष जानने के लिये देखें अपराजितपच्छा सूत्र-१५७ प्रा०१४