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भाग अर्ध चन्द्र के प्राकार वाला बनावें । इसके कोने में घंटडीया लगावें और ऊपर कलश रक्खें ॥४५॥ अपराजितपृच्छा सूत्र १४४ में कहा है कि
"मण्डूको तस्य कर्तव्या अर्धचन्द्राकृतिस्तथा । पृथुदण्डसप्तगुणा हस्ताविपञ्चावधि !! षड्गुणा च द्वादशान्त शेषाः पञ्चगुणास्तथा । तथा त्रिभागविस्ताराः कर्तव्याः सर्वकामदाः ।। अर्धचन्द्राकृतिश्चैव पक्षे कुर्याद् गगारकम् ।
वंशाध्वं कलशं चैव पक्षे घण्टाप्रलम्बनम् ।।" ध्वजादंड की पाटली. अर्धचंद्र के आकार की नावे । वह एक से पांच हाथ तक के संदे व मादड के विस्तार से सातगुणो, छह से बारह हाथ तक के लम्बे ध्वजादंड के विस्तार से हगुणी और तेरह से पचास हाय तक के ध्वजादंड के विस्तार से पांचगुणी पाटलो लम्बाई में रक्खें । लम्बाई का तीसरा भाग विस्तार में रक्खें। यह सब इच्छितफल को देनेवाली हैं। अर्धचंद्राकृत के दोनों तरफ भगारक बनावें । दंड के ऊपर कलश रखें. पोर पाटली के दोनों बगल में लम्बी घंटडीयां लगाना चाहिये। ध्वजाका मान
ध्वजा दण्डप्रमाणेन दैर्येऽष्टांशेन विस्तरे ।
नानावस्त्रविचित्राय -स्त्रिपञ्चायशिखोसमा ।।४६॥ ध्वजादंड के लंबाई के मान को ध्वजा की लंबाई रक्खें और लम्बाई से आठवें भाग की चौड़ाई रखें । यह अनेक वर्ण के वस्त्रों की बना और अग्रभाग में तीन अथवा पांच शिखायें बनावें ।।४६।। ध्वजा का महात्म्य
पुरे च नगरे को रथे राजगृहे तथा ।
वापीकूपतड़ागेषु ध्वजाः कार्याः सुशोभनाः ॥४७॥ पुर, नगर, किला, रथ, राजमहल, वावडी, कूआँ और तालाब प्रादि स्थानो के अपर सुन्दर ध्वजा रखनी चाहिये ।।४।।
निष्पन्न शिखरं दृष्ट्वा धजहीने सुरालये । असुरा वासमिच्छन्ति धजहीनं न कारयेत् ॥४८॥
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