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प्रासादमरखने
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से ही प्रासादों के नाम और उसको जाति, ये दोनों उत्पन्न होते हैं ।।५।। भ्रमणी (परिकमा)
दशहस्तादधो न स्यात् प्रासादो भ्रमसंयुतः ।
नवाष्टदशमागेन भ्रमो भित्तिविधीयते ॥६॥ दस हाथ से न्यून प्रासाद को भ्रमणी (परिकमा ) नहीं किया. आसा, किन्तु दस हाथ से अधिक विस्तार वाले प्रासाद को भ्रमणो करना चाहिये । भ्रमरणी और दीवार प्रासाद के पाठ नब अथवा दसवें भाग को रखना चाहिये ।।६।।
क्षेत्राण्यादि एकाङ्गी प्रकार विभक्सि अंत
१-वैराज्य प्रासाद---
वैराज्यश्चतुरस्रः स्याश्चतुद्वारे चतुष्किका । प्रासादो ब्रह्मणः प्रोक्तो निर्मितो विश्वकर्मणा ॥७॥
प्रथम वैराज्य प्रासाद समचौरस और चार द्वार वाला है । प्रत्येक द्वार 'चौकी मंडप वाला बनावें । यह प्रासाद ब्रह्माजी ने कहा है और विश्वकर्मा ने निर्माण किया है 11७11 अपराजितपृच्छा सूत्र १५५ में कहा है कि
"चतुरस्रो कृते क्षेत्र तया षोडशभाजिते । तस्य मध्यं चतुर्भागार्भ सून कारयेत् । द्वादशस्वथ शेषेषु बाह्य भित्तोः प्रकल्पयेत् ।।"
वैराज्य प्रासाद की समचोरस भूमिका सोलह भाग कर के उन में से चार भाग का मध्य गर्भगृह बनावें और बाकी बारह भाग में 1ो २ भाग को दीवार और दो भागको भ्रमरगी बनावें।
सपाद शिखरं कार्य धण्टाकलशभूषितम् । चतुर्मिः शुकनासैस्तु सिंहविराजितम् ।।८।।
इसके शिखर का उदय विस्तार से सवाया बनावें । तथा
मामलसार और कलश से सोभायमान करें। एवं पारों ही दिशा में शुकनाश तया सिंहकर्ण प्रादि से शिखर को शोभायमान बनावें ॥८॥
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