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प्रासादमरने
"एकद्वारं च माहेन्धा-मन्यथा दोषदं भवेत् ।
भद्र सर्वत्र कल्याणं पार शिवालये ॥" मप सू० १५७ शिवालय में एक बार रखना हो तो पूर्व दिशा में ही रखने पौर प्रत्य दिशा में रस्से तो दोष यो वाला है। परन्तु चारी दिशा में चार द्वार बनायें तो कल्याण कारक हैं ।
'ब्रह्मविषारवीणां च कुर्यात् पूर्वोक्कमेव हि ।
समोसरखेच जैनेन्द्र दिशादोषो न विद्यते ।।१० सू. १५७ ब्रह्मा, विष्णु और सूर्य, इन प्रासादों में ऊपर कहे अनुसार द्वार बनायें। जिनदेव के समवसरण प्रासादों में दिया का दोष नहीं हैं । चाहे जिस दिशा में बार बना सकते हैं।
वैराज्यादिसमुत्रमाः प्रासादा मनबोदिता।" एक-त्रि-पत्रसप्ताह-संख्याः पञ्चविंशतिः ॥११॥
इति वैराग्यप्रासादः । राज्यादि जो पचीस प्रासाद हैं, ये ब्रह्माजी ने बतायें है। वे एक, तोन, पाच, सात और मद अंगों के भेदवाले हैं।
जैसे-वैराज्यप्रासाद एक अंग फक्त कोना वाला है। नंदन, सिंह और श्रीनन्दन, ये सीन प्रासाद तोन अंग (दो कोना और भद्र) वाले हैं। मंदर, मलय, विमान, सुमिशाल और
लोकमभूषण, ये पांच प्रासाद पांच अंग ( दो कर्ण, दो प्रतिरष मीर भद्र) वाले हैं। माहेन्द्र, रत्नशीर्ष, शतभंग, भूधर, भुवनमंडन लोक्यविजय और पृषीवल्लभ, ये सात प्रसाद सात अंग ( दो कर्ण, दो प्रतिरथ, दो रथ और भद्र) बाले है । महीधर, कैलाश, नवमंगल, गंघमावन, सर्वाङ्गसुन्दर, विजयानन्द सर्वाङ्गतिलक, महाभोग और मेक, ये नव प्रासाद नव अंग (दो कर्ण, दो प्रतिकर्ण, दोरण, दो उपरप और भ) वाले है। ऐसा अपराजित पृस्था सुत्र १५६ में कहा है ॥११॥ २-नन्दन प्रासाद---
चतुर्मक्ते भवेत् कोणो भागो भद्रं विभागिकम् । भागाचं निर्गमें मद्रे प्रकुर्यान्मुखभद्रकम् ॥१२॥ शृङ्गमेकं भवेत् कोणे वे द्वे भद्रे च नन्दनः ।।
इति नंदनः । प्रासाद के तल का चार भाग करें। उनमें से एक २ भाग का कोना और दो भाग का भद्र बनावें । भट्ट का निर्मम प्राधा भाग का रक्खें । भद्र में मुखभद्र भी बनावें । कोने के ऊपर १. ब्रह्मणाषिता: २. '' ।