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अथ प्रासादमण्डने पञ्चमोऽध्यायः मंगल
नानाविधमिदं विश्वं विचित्रं येन पत्रितम् । " सूत्रधारः श्रेयसेऽस्तु' सर्वेषां पालनक्षमः ॥१॥ जिसने अनेक प्रकार का यह विचित्र जगत बनाया है, यही सूत्रधार (विश्वकर्मा) सबका पालन करने में समर्थ हैं । और यही सबके कल्याण के लिये हो ॥१॥ गंथ मान्यता की याचना
न्यूनाधिक प्रसिद्ध च यत् किचिन्मएडनोदितम् ।
विश्वकम प्रसादेन शिल्पिभिर्मान्यतां वचः ॥२॥ जगत में जो कुछ मंडन सूत्रधार का न्यूनाधिक रूप से कहा हुमा शिल्पशास्त्र प्रसिद्ध है, वह विश्वकर्मा की कृपा से शिल्पियों से मान्य हो ।।२।। वैराग्यमाता
चतुर्भागं समारभ्य यावत्सूर्योत्तरं शतम् ।
भागसंख्येति विख्याता पालना कण बाह्यतः ||३|| चार भाग से लेकर एकसो बारह भाग तक के वैराज्यादि प्रासाद होते हैं। तथा उनकी कासनाएँ कोने से बाहर निकलती होती हैं । १३॥ लनाके मेर
अष्टोत्तरशतं भेदा अंशद्धथा भवन्ति ते ।
समांशैविषमैः कार्या-नन्तभेदैश्च कालना ||४|| एक २ अंशकी वृद्धि से फालना का एक सौ पाठ भेद होते हैं। एवं समांश पार विषमांश के भेदों में फालना के अनन्त मेद भी होते हैं ॥४॥
एकस्यापि तलस्योर्चे शिखराणि बहुन्यपि ।
नामानि जातयस्तेषा-मध्यमार्गानुसारतः ॥५॥ एक ही तल के कार बहुत प्रकार के शिखर बनायें जाते हैं और उन शिखरों के निर्माण १. ' एव स्था।