________________
प्रासादमडने
द्वाविप्रासाद का हारमान
प्रासादे एकहस्ते तु द्वारं कुर्याद् दशा लम् । रसहस्तान्तकं यावत् तानसी वृद्धिरिष्यते ॥३६॥ पञ्चाङ्ग ला दशान्तं च इथङ्ग ला प शनाकम् । पृथुत्वं च तदर्थेन शुभ स्यात्तु कलाधिकम् ॥५०॥
| #কি #বিঃৱামান। एक हाप के प्रासाद के द्वार का उदय दस अंगुल, पीछे छह हाय तक प्रत्येक हाथ दस २ अंगुल, सात से दस हाथ तक पांच २ मंगुल और ग्यारह से पचास हाथ तक के प्रासाद के द्वार का उदय प्रत्येक हाय दो दो अंगुल बड़ा करके रक्खें । उदय से प्राधा विस्तार रक्खें। विस्तार में उदय का सोलहवां भाग बढ़ावे तो अधिक शोभायमान होता है ।।४६-५०॥
अन्य जाति के प्रासादों का द्वारमान--
विमाने भूमिजं मान बैराटेषु तथैव च । मिश्रके लतिने चैव प्रशस्तं नागरोद्भवम् ।।५।। विमाननागरच्छन्दे कुर्याद् हिमानपुष्पके । सिंहावलोकने द्वारं नागरं शोभनं मतम् ।।२।। वलम्यां भू मजं मानं फांसाकारेषु द्राविडम्। " धातुजे रत्नजे चैत्र दारुजे च रथारुहे ||५||
इति द्वारमानम् । विमान और वैराट जाति के प्रासाद का द्वार भूमिज जाति के मान का, मिश्र और लतिन जाति के प्रासाद का द्वार नागर जाति के मान का, विमाननागर, विमानपुष्पक और सिंहावलोकन जाति के प्रासाद का द्वारमान नागर जाति के मान का, वलभी प्रासाद का द्वारमान भूमिज जाति के मान का, फांसनाकार, धातु, रत्न, दारुज और रथारुह जाति के प्रासाद का द्वार द्राविड जाति के मान का रखना चाहिये ।।५१-५३॥
द्वारशाखा
नशा महेशस्य देवानां सप्तशालिकम् । पञ्चशाखं सार्वभौमे विशाख मण्डलेश्वरे ॥५४॥