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तृतीयोऽध्यायः
रूपस्तम्भस्तथा षष्ठी रूपशाख। ततः परम् । खल्वशाखा च सिंहाख्या भूलकर्णेन सम्मिता ॥६७।।
इति नवशाखाः । प्रथमा पशाखा, दूसरी गांवशाखा, तीसरी स्तंभशाखा, चौथी खल्वशाखा, पांचवीं गांधर्वशाखा, छठा रूपस्तंभ, सातबों रूपशाखा, पाठयों खल्वशाखा और नवी सिंहशाला है। थे नक्शाखा का विस्तार प्रासाद के कोने तक किया जाता है ।।६६-६७।।
नवशाखा का मान
"शाखाविस्तारमान तु रुद्रभागविभाजितम् । द्विभागः स्तम्भ इत्युक्त उभयोः कोशिकाद्वयम् ॥ निर्गम: सामान पाधीनदयमेव ।
रूपस्तंभद्वयं कार्य गन्धर्वावयमेव च ॥" अप० सूत्र १३२ नवशाखा के विस्तार का ग्यारह माग करके, उनमें से दोनों स्तंभ दो २ भाग रखना चाहिये । उनके दोनों तरफ पाव २ भाग की कोशिकायें बनावें । स्तंभका निर्गम डेढ़ा अथवा पौने दुगुना रक्खें । इन नवशाखामों में दो स्तंभ और दो गांधर्ष शाखा हैं। दोनों स्तंभ का विस्तार दो २ भाग और प्रत्येक शाखा का विस्तार एक २ भाग रखना चाहिये। उत्तरंग के देव
यस्य देवस्य या मूचिः सैप कार्योत्तरङ्गाके ।
शाखायां च परिवारो गणेशरचोचरणके ॥६॥ इति श्री सूत्रधारमंडनविरचिते वास्तुशास्त्र प्रासादमण्डने भिट्ट
पीठमण्डोयरगर्भगृहोदुम्भरद्वारप्रमाणनामस्तृतीयोऽध्यायः । प्रासाद के गर्भगृह में जिस देश की मूर्ति प्रतिष्ठित हो, उस देव की मूत्ति द्वार के उत्तरंग में रखनी चाहिये । तथा शाखामों में उस देव के परिवार का रूप बनाना चाहिये। उत्तरंग में गणेश को भी स्थापित कर सकते हैं ॥६८||
इति श्री पंडित भगवानदास जैन का अनुवादित प्रासादमंडन के तीसरे अध्याय की सुधिनी नाम्नी भाषाटीका समाता ॥३॥