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तृतीयोऽध्यायः
एकशाखं भवेद् द्वारं शूद्रे वैश्ये द्विजे सदा ।।
समशाखं च धूमाये श्वाने रासभवायसे ॥५५॥ महादेव के प्रासाद का द्वार नवशाखा वाला, दूसरे देवों के प्रासाद का द्वार सात शाखा वाला, चक्रवर्ती राजाओं के प्रासाद का द्वार पांच शाखावाला, सामान्य राजाओं के प्रासाद का द्वार तीन शाखावाला, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र जाति के गृहों के द्वार एक शाखाबाला बना । दो, चार, छह और पाठ, ये सम शाखावाले द्वार धूम, श्वान, खर और ध्वांक्ष प्राय वाले घरों में बनाने चाहिये ।।५४-५५॥ ।
शाखा के प्राय
"नवशाख वणश्चैको वृषभः पञ्चशाखिके ।
त्रिशालेच तथा सिंहः सप्तशाले मजः स्मृतः ।। अप० मू० १३१ नवशाख में ध्वज श्राय, पंचशाख में वृषप्राय, त्रिशास्त्र में सिंह प्राय और सप्तश्वास में गा प्राय देनी चाहिये । प्रासाद के अंग तुल्यं शाखा
त्रिपञ्चसप्तनन्दाङ्ग शाखाः स्युरङ्गतुल्यकाः ।
होनशाखें न कत्तव्य-मधिकाढ्य सुखावहम् ।।५६॥ प्रासाद के भद्र आदि तीन, पांच, सात अथवा नव अंग हैं। उनमें से जितने अंग का प्रासाद हो, उतनी शालायें बनानी चाहिये । अंग से कम शाखा नहीं बनाना चाहिये, लेकिन यदि अधिक बनावें तो वह सुखदायक हैं।
शाखा से द्वारका नाम और परिचय----
"पदिनी नवशाख च सप्तशावं तु हस्तिनी । नन्दिनी पञ्चास्त्रं च त्रिविधं चोनम भवेत् ।। मुकुली मालिनी ज्येष्ठा गान्धारो सुभगा तथा । मध्यमेति द्विधा प्रोक्ता कनिष्ठा सुप्रभा स्मृता ।। मुकुली चाष्टशावं च पट्शाखं च मालिनी ।
(१) श्वाने वाले च रासभे ।
प्रा०६ .