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प्रासादमवने
परमजैन ठक्कुर 'फेस' विरचित वत्सारपयरण के तीसरे प्रकरण में देवकुलिका का
कम बतलाया है । जैसे
बावन जिनालय --
३२
"ती वाम दाहिण नव बुद्धि घट्ट पुरनो न देहरयं । मूलपासाय एगं
बाया जिनालये
एवं ॥ "
र
२
जिप्रासाद के बायीं और दाहिनी
ऐसे इकावन देवकुलिका और एक मुख्य प्रासाद मिलकर कुल बावन जिनालय कहा जाता है।
बहतर देवकुलिका---
"rati rai दाहिणवामेसु पिट्ठि इग्मारं ।
दह प्रावे नावं इस बहतर निणिदानं ॥ "
निप्रासाद के बांयी ओर दाहिनी ओर पथ्चीस २: पीछे की तरफ ग्यारह और ग्रा की तरफ दस ऐसे इकहत्तर देवकुलिका और एक मुख्य प्रासाद मिलकर कुल बहत्तर जिनालय कहा जाता है |
चौवीस देवकुलिका
"अमी दाहिए वामे जिरिंग गेह नउवीसं । मूलसिलागाउ क्रमं पकौरए जगइ-मज्झमि ॥"
मुख्य जिप्रासाद के भागे, दाहिनी और बायीं ओर ऐसे तीन दिशा में आठ २ देवकुलिका बनाने से कुल चोवीस जिनालय कहा जाता है। ये सब देवकुलिकाएं जगती के प्रान्त (सरहद ) भाग में की जाती हैं ।
मण्डपाद् गर्भत्रेण वामदक्षिणयोदशीः ।
tet प्रकर्त्तव्यं त्रिशाला वा बलाणकम् ||२४||
मुख्य जिनप्रासाद के गूढ मंडर की बायीं और दाहिनी ओर अष्टापद त्रिशाला अथवा बलाक बनायें | ( सामने भी बलायक बनाया जाता है ) ||२४||
रथ और मठ का स्थान-----
परे रथशाला च मठं याम्ये प्रतिष्ठितम् ।
उतरे cata च प्रोक्तं श्रीविश्कर्मणा ॥२५॥
देवालय के पीछे की तरफ रथशाला, दक्षिण में मठ ( धर्मगुरु का स्थान ) और उत्तर में रथ का प्रवेश द्वार बनावें। ऐसा विश्वकर्मा ने कहा है ||२५||