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द्वितीयोऽध्याय
देवके वाहन का दृष्टिस्थान-
पाई जानु कटिं यावदर्भाया वाहनस्य दृक् ।
वृषस्य विष्णुभागान्ते सूर्ये व्योमस्तनान्तकम् ॥ २१ ॥
मूर्ति के चरण, जानु अथवा कमर पर्यन्त ऊंचाई में वाहन की दृष्टि रखनी चाहिये । वृषभ (नदी) की दृष्टि शिवलिंग के विष्णु भाग तक और सूर्य के वाहन ( घोटा ) की दृष्टि मूर्ति के स्तनभाग तक रखनी चाहिये ||२१||
अपराजितवृच्छा में कहा है कि
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"वृषस्य चोच्छ्रयः कार्यो विष्णुभागान्तदृष्टिकः ॥ पाद जानु कटि यावदा वाहनस्य हक्
attered वा सूर्ये व्योमस्तनान्तकम् || विलोमे कुरुते पीडा-मपोहष्टि: सुखक्षयम् ।
स्थानं हन्यादूर्ध्वदृष्टिः स्वस्थानै मुक्तिदायिका ||" सूत्र० २०८
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वृषभ की ऊंचाई शिवलिंग के विभाग तक दृष्टि रहे, इस प्रकार रखें । देवों के वाहन की दृष्टि उनके चरण, जानु अथवा कटि तक रहे तथा गुह्य नाभि मोर स्तन तक दृष्टि रहे इस प्रकार ऊंचाई रक्खें | इससे विपरीत रखने से दुःख होवेगा । उपरोक्त भाव से नीची दृष्टि रहने पर सुख का क्षय होगा और यदि ऊंची दृष्टि ही रहेगी तो स्थान wष्ट होगा। इसलिये कहे हुए अपने २ स्थान में दृष्टि रखने से मुक्तिपद मिलता है।
जिन प्रासाद के मंडपों का क्रम --
जिनाग्रे समोसरणं शुक्राग्रे गूढमण्डपः ।
गूढस्याग्रे' चतुष्किका तदग्रे नृत्यमण्डपः ||२२||
जिन प्रासाद' के आगे समवसरण बनाना । शुकनास ( कवलीमंडप ) के ग्रामे गूढ मण्डप, इसके प्रागेचौकी मंडप और इसके आगे नृत्यमंडप बनाने चाहिये || रा
जिप्रासाद में देवकुलिकाका क्रम --
दिसप्तत्या द्विवार्वा चतुर्विंशतितोऽपि वा ।
जिनालये चतुर्दिक्षु सहितं जिनमन्दिरम् ||२३||
ऐसा जिनमन्दिर बनाना चाहिये की जिनप्रासाद के चारों तरफ बहत्तर, बावन अथवा
भौवीस देवकुलिकायें हों ॥२३॥
(१) 'तस्याद्ये विकाथा च' ।