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द्वितीयोऽध्याय
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जगती तादृशी कार्या प्रासादो यादृशो भवेत् । भिन्नच्छन्दा न कर्त्तव्या प्रासादासनसंस्थिता ॥२६॥
इति प्रासादजगती। प्रासाद जिस प्रकार का हो, उसी प्रकार की जगती बनानो चाहिये । भिन्न याकार को नहीं बनानी चाहिये । क्योंकि यह प्रासाद का प्रासनरूप है ॥२६।। अन्य प्रासाद
अग्रतः पृष्ठतश्चैव वामदक्षिणयोर्दिशोः' ।
प्रासादं कारयेदन्यं नाभिवेत्रिवर्जितम् ॥२७॥ मुख्य प्रासाद के आगे, पीछे, बायीं और दाहिनी ओर दूसरे प्रासाद बनायें जाय, वे सब नाभिवेध (प्रासाद के गर्भ ) को छोड़कर के बनावें ॥२७।। शिवलिंग के आगे अन्य देव----
लिङ्गाग्रे तु न कर्तव्या अर्चारूपेण देवताः ।
प्रभानया न भोगाय यथा तारा दिवाकरे ॥२८॥ शिवलिंग के सामने कोई भी देव पूजन के रूप में स्थापित करना नहीं चाहिये। क्योंकि जैसे सूर्य के तेज से तारापों की प्रभा नष्ट होती है, वैसे दूसरे देत्रों की प्रभा नष्ट होती है। इसलिये वे देव भोगादि सुख संपत्ति नहीं दे सकते ।।२।। देव के सम्मुख स्वदेव
शिवस्याग्रे शिवं कुर्याद् ब्रह्माणं ब्रह्मणोऽग्रतः ।
विष्णोरग्रे भवेद् विष्णु-जिने जिनो रवी रविः ॥२६।। ___शिवके सामने शिव, ब्रह्मा के सामने ब्रह्मा, विष्णु के सामने विष्णु, जिनदेव के सामने जिनदेव और सूर्य के सामने सूर्य, इस प्रकार प्रापस में स्वजालीय देव स्थापित किया जाय तो दोष नहीं माना जाता ॥२६॥
"चण्डिकाने भवेन्माता यक्षः क्षेत्रादिभैरवः ।
ज्ञेयास्तेपामभिमुखे ये येषां च हितैषिणः ॥'' अप० सू० १०८ चंडिका प्रादि देवी के सामने मातृदेवता, यज्ञ, क्षेत्रपाल और भैरव आदि देव स्थापित किये जायें तो दोष नहीं है । क्योंकि वे आपस में हितैषो हैं । (१) 'तोऽपि वा। (२) जिने जैनो।
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