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प्रासादमण्डने
मन मैं उदुम्बर ( देहली ) का स्वरूप कहता हूँ। यह स्तंभों की कुम्भियों की ऊंचाई के बराबर ऊंचाई का रक्खें । यदि किसी कारण वश लीचा करने की आवश्यकता हो तो कुम्भी के अर्धभाग, तीसरा भाग प्रथवा चौथा भाग जितना नीचा कर सकते हैं। ऐसे चार प्रकार के उदुम्बर का उदय प्रशस्त माना है। इससे होन अथवा अधिक जदय का बनावें तो दुषित होता है. खुरथर के उदय बराबर अर्द्ध चन्द्रका अदय रक्खें, और इसके ऊपर उदुम्बर रक्खें। गर्भगृह के भूमितलका उदय उदुम्बर के आधे, तीसरे अथवा चौथे भाग में रक्खें । बाहर के मंडपों की भूमितल पीठ के उदयान्त तक रक्खें और रंगमंडप का भूमितल पीठ के नीचे के अंत्य भाग में रवखें। क्षीराव में भी कहा है कि
"उदुम्रे क्षते' कुम्भी स्तम्भक चावपूर्वकम् ।
सान्धारे व निरन्धारे कुम्भिकासमुदुम्बरम् ।।' प्रध्याय १०६ यदि किसी कारणवश उदुम्बर का उदय कम किया जाय तो.भी कुम्भी और स्तंभ का मान पहले जितना ही रखना चाहिये, अर्थात् स्तम्भको कुम्भी कम नहीं करनी चाहिये ऐसा विशेष नियम है । बाकी सांधार और निरंधार प्रासादों में कुम्भी के उदय बराबर उदुम्बर का उदय रखना चाहिथे, ऐसा सामान्य नियम है । अर्द्धचन्द्र (शंखापत)---
खुरकेन समं कुर्या-दध चन्द्रस्प चोच्छृतिः । द्वाख्याससमं दैर्घ्य निर्गमें स्यात् तदर्धतः ।।१२।। विभागमर्धचन्द्र च भागेन द्वी गगाको । शङ्खपत्रसमायुक्त पभाकारलतम् ॥४३॥ .
इति प्रचन्द्रः। कितने हो माधुनिक शिल्पियो की मान्यता है कि-"उदुम्बर (देहली) कुम्भा से मिचा उतारने की प्रावश्यकता हो तब उसके बराबर स्तंभ की कुम्भिमा भो नीचा उतारनी चाहिये ।" उनकी यह मान्यता प्रामाणिक मालूम नहीं होतो. क्योकि बोराणं म. १०६ में स्पष्ट लिखा है कि 'अदुम्बरे इते (इसे) कुम्भी स्तम्भ तु पूर्ववत् भवेत् ।' कमी उदुम्बर उदय में कम करने की मावश्यकता हो तब स्तम्भ और उनकी कुम्भिया प्रथम के मान के अनुसार रखनी चाहिये । एवं अपराजित पृच्छा सूत्र १२६ में तो मुस्लिमों से हीउदुम्बर नीचा उतारने को कहा है. तो कुमियां नीचे कैसे की जाय ? इससे साफ मालूम होता है कि अब उदुसर नीचा करने की मावश्यफना हो, तर कुरिभयो नीचे नही करनी चाहिते, किन्तु कुम्भा के उदय बराबर ऊपाई में रखनी चाहिये।
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