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प्रासादमराहने
क्षीरार्णव मत से पीठमान
"एकहस्ते तु प्रासादे पीठं वै द्वादशाङ्गलम् । हस्तादिपञ्चपर्यन्तं हस्ते हस्ते पञ्चाङ्ग ला॥ पोर्ध्व दशपर्यन्तं वृद्धिर्वेदानला भवेत् । दशो विशयावत्तु हस्ते हस्ते याङ्गला ॥ विशोर्व षन्निशा वृद्धिस्तु चाङ्गलवया । षधिशोर्व शतान्ति हस्तहस्तकमङ्गला ।। पश्चमांशे ततो हीनं कनिष्ठं शुभलक्षणम् ।
पञ्चमांशेऽधिकं चैव ज्येष्ठं त्वष्ट्रा च भाषितम् ।।" अध्याय ३ इसका अर्थ श्लोक पांच और छह के बराबर है । सिर्फ दोसे पांच हाथ तक के प्रासाद की पीठ प्रत्येक हाप पांच २ अंगुल बढा करके बनाना लिखा है, यही विशेष है 1 इस मत से पचास हाथ के विस्तार वाले प्रासाद को पीट का उदय पांच हाथ और पाठ अंगुल का होता है । पपराजितएच्छा के मससे पीठ का उदयमान
"एकहस्ते तु प्रासादे पीठं वै द्वादशाङ्गलम् । द्वपाङ्गलं द्विहस्ते च विहस्तेऽष्टादशाङ्गलम् ॥ म पाद विभाग वा त्रिविधं परिकल्पयेत् । श्यंशेनार्धन पादेन चतुर्हस्ते सुरालये ।। पादं पीठोच्छथं कार्य प्रासादे पञ्चहस्तके । पच्चो दशपर्यन्तं रसांशं हस्तवृद्धये ।। ततो हस्ते चाष्टमांशा वृद्धिः स्याद् द्वाविंशावधि । षत्रिंशदन्तं वृद्धिस्तु हस्ते के द्वादशांशिका । चतुर्विशत्यंशिका ल दूर्व यावच्छतार्थकम् । मध्ये न्यूनेऽधिक पञ्चमाशे ज्येष्ठ कनिष्टकम् ।। त्रिज्येष्ठमिति च स्यातं त्रिमध्यं त्रिनिष्टकम् ।
तस्याभिधानं वक्ष्येऽह-मुदितं नवधोच्छ्यात् ।।" सूत्र० १२३ एक हाथ के प्रासाद को बारह अंगुल, दो हाथ के प्रासाद को सोलह अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद को अठारह अंगुल पीठ का उदय रखें। प्रति एक हाथ के अर्द्ध भाग, दो हाथ के तीसरे भाग और चार हाथ के चौथे भाग पीठ का उदय रक्खें। चार हाथ के प्रासाद को मर्द भाग (४८ अंगुल ), तीसरे भाग { ३२ अंगुल ) अथवा चौथे भाग (२४ अंगुल ) पीठ का उदय रखना चाहिये । पांच हाथ के प्रासाद को चौथे भाग ( ३० अंगुल ), छह से दस हाय के प्रासाद को प्रत्येक हाथ चार २ अंगुल, ग्यारह से बाईस हाथ के प्रासाद को तीन २ अंगुल, तेईस से छत्तीस हाय के प्रासाद को दो दो अंगुल और सेंतीस से पचास हाय के प्रासाद को