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प्रासादमण्डने
नदी के तट, सिद्ध पुरुषों के निर्वाण स्थान, तीर्थभूमि, शहर गांव, पर्वत की गुफाओं में, बाबडी, वाटिका (उपवन) और तालाब आदि पवित्र स्थानों में देवालय बनाना चाहिये ॥३२॥ प्रासाद निर्माण पदार्थ
स्वशक्त्या काष्टमृदिष्ट-का शैलधातुरनजम् ।
देवतायतनं कुर्याद् धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥३३॥ अपनी शक्ति के अनुसार काठ, मिट्टी, ईट, पाषाण, सुवर्ण आदि धातुओं और रत्न, इन पदार्थों का देवालय बनाना चाहिये। किसी भी पदार्थ का देवालय बनाने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।।३३।। देव स्थापन का फल---
देवानां स्थापनं पूजा पापघ्नं दर्शनादिकम् ।
धर्मपृद्धिर्भवेदर्थः कामो मोक्षस्ततो नृणाम् ॥३४॥ देवों को स्थापना, पूजा और दर्शन करने से मनुष्यों के सब पापों का नाश होता हैं तथा धर्म की वृद्धि, एवं अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥१४॥ देवालय बनाने का फल
कोटिनं तृणजे पुण्यं मृन्मये दशसगुणम् । .
ऐटके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं स्मृतम् ॥३५॥ देवालय घास का बनाने से कोटिगुणा, मिट्टी का बनाने से दस कोटिगुणा, ईटों का बनाने से सौकोटिगुरणा और पाषाण का बनाने से प्रतन्त गुणा फल होता है ।।३५।। वास्तु पूजा का सप्त स्थान----
कूर्मसंस्थापने द्वारे यमाख्यायां च पौरुपे ।
घटे बजे प्रतिष्ठाया-मेवं पुण्याहसप्तकम् ॥३६॥ कूर्म की स्थापना कार स्थापन, पशिला की स्थापना, प्रासाद पुरुष को स्थापना, कलश और ध्वजा चढाना, और देव इतिष्ठा, ये सात कार्य करते समय वास्तु पूजन अवश्य करना चाहिये । यह पुण्याहसप्तक कहा जाता है ।।३६।।