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अथ प्रासादमण्डने द्वितीयोऽध्यायः
जगतीविश्वकर्मोवाच
प्रासादानामधिष्ठानं जगती सा निगद्यते ।
यथा सिंहासनं राज्ञः प्रासादस्य तथैव सा ॥१॥ प्रासाय की मर्यादित भूमि को अगती कहते हैं। जैसे-राजा का सिंहासन रखने के लिये अमुक स्थान मर्यादित रखा जाता है, वैसे प्रासाद बनाने के लिये प्रमुक भूमि मर्यादित रक्खी जाती है ॥१॥ अपराजितपृच्छा के सूत्र ११५ में श्लोक ५ में लोखा हैं कि
__ "प्रासादो लिङ्गमित्युक्तो जगती पीठमेव च ॥" प्रासाद शिवलिङ्गका स्वरूप है। जैसे शिवलिङ्ग के चारों तरफ पीठिका है, वैसे ही प्रासाद के जगतीरूप पीठिका है। जगती का प्राकार
चतुरस्त्रायसाष्टासा वृत्ता वृत्तायता तथा ।
अगती पञ्चधा प्रोक्ता प्रासादस्यानुरूपतः ॥२॥ समचोरस, लंब चोरस, पाठ कोने वाली, गोल और लंबगोल, ऐसे पांच भाकार वासी जगतो हैं। उनमें से प्रासाद का जैसा आकार हो, वैसी जगती बनानी चाहिये ॥२॥ जगती का विस्तार मान
प्रासादपृथुमानाथ त्रिगुणा च चतुगुणा ।
क्रमात् पञ्चगुणा प्रोक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठिका ।।३।। प्रासाद के विस्तार के मान से तीन गुरणी, चार गुणी अथवा पांच गुणी अगती बनानी चाहिये । उनमें तीनगुणी ज्येष्ठमान की, चार गणो मध्यममान को और पांच गुणी कनिष्ठ मान को अगली समझनी चाहिये ।।३।।
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