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प्रथमोऽध्यायः
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शान्तिपूजा का चौवह स्थान----
भून्यार मे सा में शिकायो धपातने । खुरे द्वारोच्छ ये स्तम्मे पढे पशिलासु च ॥३७॥ शुकनासे च पुरुष घण्टायां कलशे तथा ।
ध्वजोच्छ ये च कुर्वीत शान्तिकानि चतुर्दश ।।३।। भूमिका प्रारंभ. कूर्म न्यास, शिला न्यास और सूत्रपात ( ललनिर्माण ), स्युर शिला स्थापन, द्वार और स्तंभ स्थापन, पाट चढ़ाते समय, पशिला, शुकनास और प्रासाद पुरुष के रखते समय, मामलसार, कलश चढ़ाना, और वजा चढ़ाना, ये चौदह कार्य करते समय शान्तिपूजा अवश्य करनी चाहिये ॥३-३८|| प्रासाव का प्रमाण
एक हस्तादिप्रासादाद् यावद्धस्तशतापकम् ।।
प्रमाणं कुम्भके मूल-नासिके भितिशयतः ॥३६।। एक हाथ से पचास हाथ तक के विस्तार वाले प्रासाद का प्रमाण दीवार के बाहर कु भा के मूलनासक ( कोणा ) तक गिना जाता है ।।३।। मण्डोवर के थरों का निर्गम
कुम्भादिस्थावराणां च निर्गमः समसूत्रतः ।
पीठस्य निर्गमो बाध तथैव बाधकस्य च ॥१०॥ कुम्भा से लेकर छज्जा के तल भाग तक जितने थर बनाये जायं, ये सब घरों के निर्गम समसूत्र में रखने चाहिये । तथा पीठ और छज्जा का निर्गम घरों के आगे निकलता हुआ रखना पाहिये ।।४।। प्रासाद के अंगों की संख्या--
त्रिपञ्चसप्तनवाभिः फालनाभिर्विभाजिते ।
___प्रासादस्याङ्गसंख्या च बारिमार्गान्तर स्थितिः ॥४१॥ कर्ण, प्रतिकणं और नन्दी प्रादि फालनायें तीन, पांच, सात अथवा नव संरूमा तक की जाती है, ये प्रासाद की अंग संख्या है । उन्हें वारिमार्ग के अंतराल में (प्रासाद की दीवार से बाहर निकलली) रखना चाहिये ॥४॥
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