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प्रथमोऽध्याय
पानी की लहर, मछली, मेंढक, मगर, ग्रास, अल (कलश) सर्प शंख इत्यादि रूप बना करके शिला को सुशोभित करना चाहिये।
धर्मशिला के रूपों के संबंध में सूत्रधार वीरपाल विरचित बेडाया प्रासाद तिलक प्रय का प्रध्याय दूसरे में लीसा है कि -
"कर्ममानमिदं च गर्भरवनाथाग्नी शिलायां अलम्,
पाम्ये मीनमुखं व नैऋतदिशि स्थाप्यं तथा दरम् । पारमा माश्य बायुविशि वै ग्रासश्च सौम्ये ध्वनिः,
नागं सकरदिशु पूर्वविषये कुम्भः शिलावह्नितः ।।" कूर्म के मान को गर्भ रचना कहता है कि--अग्निकोण में पारणी की लहर, दक्षिण में माछली. नैऋत्य में मेंडक, पश्चिम में मगर, वायुकोण में ग्रास, उत्तर में शंख, ईशान में सर्प .." और पूर्व दिशा में कुम्भ की प्राकृतियां बनानी चाहिये ।
शिल्पियों को मान्यता बंश परंपरा से लहर को प्राकृति पूर्व दिशा में बनाने की हैं। सूत्रारंभ नक्षत्र--
सूत्रारम्भो गृहादीना-पुत्तरायां करनये ।
बाको पुष्ये मृगे मैश्वे पोण्ये बापवबाहरणे ॥३०॥ प्रासाद और गृह प्रादि का प्रारंभ तीनों उत्तरा ( उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषादा और उत्तराभादपद), हस्त, चित्रा, स्वाति, रोहिणी, पुष्प, मृगशीर्ष, अनुराधा, रेवतो, धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में करना चाहिये ।।३० शिला स्थापन क्षत्र
शिलान्यासस्तु रोहिण्यां अक्से इस्तषुष्ययोः ।
मृगशीर्षे च रेवत्या-मुत्तरात्रिखये शुभः ॥३१॥ रोहिणी, श्रवण, हस्त, पुष्य, मृगशीर, रेवती और लोनों उत्तरा इन नक्षत्रों में शिलाको स्थापना करना शुभ है ।।३।। देवालय का निर्माणस्थान--
नो सिद्धाश्रमे तीर्थे पुरे ग्रामे च गरे । वापी-बाटी-तडागादि-स्थाने कार्य सुरालयम् ।।३२।।