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प्रथमोऽध्यायः
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एक हाय के प्रासाद में कूर्म प्राधा अंगुल का, दोसे पंद्रह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके, सोलह से एकत्तीस हाय के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल बढ़ा करके, और बत्तीस से पचास हाय के प्रासाद में प्रत्येक हाथ एक २ सूत बढ़ा करके बनावें । इस प्रकार पचास हाम के प्रासाद में एक भूत कम चौदह अंगुल के मान का कूर्म होता है । मोरार्णव के मत से कर्ममान-- _ विलाय. परांश
कामद। सालङ्कारसंयुक्तं दिव्यपुष्पैश्च पूजितम् ॥" अध्याय १०१ भारणी शिला के पांचवें भाग का कर्म बनायें, यह उत्तम मान है । उसको सब प्रकार के अलंकारो से युक्त करें और सुगंधित पुष्पों से पूजित करें। कूर्म का ज्येष्ठ और कनिष्ठ मान
कोशाधिको ज्येष्ठः कनिष्ठो हीनयोगतः । सौवर्णो रूप्यजो वापि नाप्यः पञ्चामृतेन स ॥२७॥
सिलवस्तथा होम-पूर्णां चैव प्रदापयेत् । कर्मका जो मान भाया हो, वह मध्यम मान है, उसमें इस मान का चौथा भाम बढ़ावे सो उमेष्ठ मानका और चौथा भाग कम करें तो कनिष्ठ मानका कूर्म होता है। यह कूर्म सुवर्ण प्रभवा चांदी का बनाना चाहिये । उसको पञ्चामृत से स्नान कराके, तथा तिल और जवों का पूर्ण पाहुति पूर्वक होम करके स्थापित करें ॥२७॥ शिला और कूर्म का स्थापन कम
ईशानादग्निकोणादा शिलाः स्थाप्याः प्रदक्षिणाः ॥२८॥ मध्ये सर्मशीला पश्चाद् गीतबादित्रमङ्गलै। बलिदानं च नैवेद्य विविधान्न धूतप्लुतम् ।। देवताभ्यः सुधीर्दयात् कूर्मन्यासे शिलासु च ॥२६॥
इति कर्म स्थापनम् । प्रथम ईशान अथवा अग्नि कोने में नंदा शिला की स्थापना करके पीछे प्रदक्षिण कम से अन्य शिलामों को स्थापित करें। पीछे मध्य में कूर्म शिला (धारणी शिला) को स्थापित करें। शिला स्थापन करते समय मांगलिक गीत और वाजींत्रों का नाद करावें । वास्तु के देवों को बलि नाकुले, नेवैद्य और भनेक प्रकार के धान्य के घृत से पूर्ण मालपूवे अादि चढ़ावें ॥२-२६।। प्रा०३
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