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प्रासावमएडने
कूर्ममान
अर्धाङ्ग लो भवेत् कूर्म एकहस्ते सुरालये । अर्धाङ्ग ला ततो वृद्धिः कार्या तिषिरावधि ॥२५॥ एकत्रिंशत्करान्तं च तदर्धा वृद्धिरिष्यते ।।
ततोऽर्धापि शतार्धान्तं कूमो. मन्वङ्ग लोतमः ॥२६॥ एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में प्राधे अंगुल के नाप का धर्म ( कच्छूपा ) नींव में स्थापित करें । दोसे पंद्रह हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाम प्राधा २ अंगुल बढ़ा करके, ( दो हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में द अगुल, चार हाथ के प्रासाद में दो अंगुल, इस प्रकार प्राधा २ अंगुल बनाने से पंद्रह हाथ के प्रासाद में साढ़े सात अंगुल के मान का कम होता है ) । सोलह से इकतीस हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में प्रत्येक हाद पाव २ गुः पढ़ा करके और तीर में पका हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाय एक २ सूत बढ़ा करके नौंव में स्थापित करें। इस प्रकार पचास हाय के विस्तार वाले प्रासाद में एक सूत कम चौदह अंगुल के मान का कूर्म होता है ॥२५-२६।। अपराजितपच्छा के मत से कूर्ममान
"एकहस्ते सुरागारे कूर्मः स्वास्चतुरङ्ग लः । अर्धाङ्ग ला भवेद् वृद्धिः प्रतिहस्तं दशावधिः॥ पादवृद्धिः पुनः कुर्याद् विवातिहस्ततः करे । ऊर्य वै त्रिशद्धस्तान्तं वसुहस्तकमङ्गलम् ।। ततः परं शतान्ति सूर्यहस्तकमङ्ग लम् ।
अनेन क्रमयोगेन मन्वङ्गलः शतार्धके ।।" सूत्र ५२ एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में कूर्म चार अंगुल के मान का. दोसे दस हाथ के . प्रासाद में प्रत्येक हाय प्राधा २ अंगुल बढ़ा कर के, ग्यारह से वीस हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पाव २ घंगुल बढ़ा करके, इक्कीस से तीस हाथ के प्रासाद में प्रलोक हाथ एक २ सूत बढ़ा कर के और इकतीस से पचास हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ अंगुल रवा कर के बना । इस प्रकार पचास हाय के प्रासाद में लगभग चौदह अंगुल के मान का फर्म होता है । अपराजितपुच्छाके मत से दूसरा कर्ममान
"एकहस्ते तु प्रासादे कुर्मश्चाङ्ग लः स्मृतः । प्रद्धवृद्धि; प्रकरीया पश्चदशहस्तावधिः ॥ एकविंशच हस्तान्तं पादवृद्धिः प्रकीतिता। तवर्षेन पुनदि-न्यङ्गलः शतार्षके ।।" सूत्र १५३