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प्रथमोऽध्यायः
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वत्सके सिर के भाग में और उनके सामने के भाग में देव मंदिर अथवा मनुष्य के घर नहीं बनावें, यदि बनावेंगे तो मृत्यु, रोग और भय हमेशा बना रहेगा । इसलिये वत्स को कुक्षि में कार्य करना अच्छा है । विशेष उक्त ग्रंथ में देखें। प्रायादिका विचार
आयो व्ययमिंशस्य भित्तिमाय सुरालये ।
धापो देवनक्षत्र व्ययांशी प्रथमी शुभी ॥१६॥ पाय, चय, नक्षत्र और अंश आदि को गणना देवालय में दीवार के बाहर के भाग से होती है । देवालय में ध्वज प्राय, देव नक्षत्र, प्रथम व्यय और प्रथम अंश ये शुभ हैं ||१६||
केपाश्चिन्मस्ता गेहे वृषसिंहगजाः शुभाः ।
आयादूनो व्ययः श्रेष्ठः पिशाचस्तु समोऽधिकः ॥२०॥ देवालयों में वृप, सिंह और गज प्राय भी श्रेष्ठ हैं। अपराजित पृच्छा सूत्र ६४ में भी कहा है कि-'ध्वजः सिंहो वृषगजो शस्यन्ते सुरवेश्मनि ।' प्राय से व्यय कम हो तो श्रेष्ठ है। सम व्यय हो तो पिशाच और अधिक व्यय हो तो राक्षस नाम का व्यय माना जाता है ॥२०॥ देवालय में विचारणीय
देवतानां गृहे चिन्त्य-मायाद्यनचतुष्टयम् ।
नवाङ्ग नादीवधादि-स्थापकामरयोमिथः ॥२१॥ देवालय में प्राय, व्यय, अंश और नक्षत्र इन चार अंगों का, तथा स्थापक ( देव स्थापन करने वाले ) और देव इन दोनों के परस्पर नाडीवैध, योनि, गण, राशि, वर्ण, वश्य, तारा, वर्ग और राशिपति, इन नव अङ्गों का विचार करना चाहिये ॥२१॥
आयादिचिन्तनं भूमि-लक्षणं वास्तुमण्डलम् ।
मासनक्षत्रलग्नादि-चिन्तनं पूर्वशाखतः ॥२२॥ माय प्रादिका विचार, भूमिका लक्षण, वास्तु मण्डल, मास, नक्षत्र और लग्न प्रादिका विचार, ये सब राजबालम मंडन प्रौर अपराजित पृच्छा भादि शास्त्रों से जानना चाहिये ॥२२॥ प्राय व्यय और नक्षत्र लाने का प्रकार
"व्यासे दैर्ध्य गुणेऽभिविभजिते शेषो ध्वजाद्यायको,
ऽध्ने तद्गुरिंगते च धिष्ण्यभजिते साहक्षमस्वादिकम् । (१) केषां च (२) होन पायाद