Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
सव्वट्टसिद्धगाणं देवाणं अपज्जत्तगाणं पुच्छा ?
गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं ।
प्रश्न- हे भगवन्! सर्वार्थसिद्ध विमान के अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही
गई है ?
उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध विमान के अपर्याप्तक देवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त की कही गई है।
सव्वट्टसिद्धगाणं देवाणं भंते! पज्जत्तगाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ठिई पण्णत्ता ॥ २४५ ॥
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प्रश्न - हे भगवन्! सर्वार्थसिद्ध विमान के पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध विमान के पर्याप्तक देवों की स्थिति अजघन्य - अनुत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की कही गई है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में वैमानिक देवों (औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक) की स्थिति कही गयी है।
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उपर्युक्त वर्णन में एकेन्द्रिय-पंचेन्द्रिय आदि रूप पृच्छाएं नहीं करने का कारण इस प्रकार संभव है - यहाँ पर दण्डक के क्रम से पृच्छाएं की गई है। एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय की पृच्छा करने से वह जाति रूप पृच्छा हो जाती है उसकी यहाँ विवक्षा नहीं लगती है। समुच्चय देव, समुच्चय भवनपति, समुच्चय नरक, समुच्चय तिर्यंच पंचेन्द्रिय आदि की पृच्छाएं भी जाति रूप पृच्छाएं नहीं है। बेइन्द्रिय आदि में समुच्चय बेइन्द्रिय की पृच्छा होने पर भी वह दण्डक रूप पृच्छा ही समझना चाहिए क्योंकि बेइन्द्रिय आदि का दण्डक भी एक एक तथा जाति भी एक-एक है। इस कारण से इन पृच्छाओं में जाति रूप होने की भ्रांति हो सकती है परन्तु इन्हें दण्डक की पृच्छाएं ही समझना चाहिये । इस स्थिति पद में सब मिलाकर ३४६ पृच्छाएं (आलापक) कही गई है।
॥ पण्णवणाए भगवईए चउत्थं ठिइपयं समत्तं ॥ ॥ प्रज्ञापना सूत्र का चौथा स्थिति पद समाप्त ॥
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