Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 386
________________ ग्यारहवाँ भाषा पद - सत्यभाषी आदि की अल्पबहुत्व ३७३ नहीं मिलने से तथा आलोचना के नहीं होने से भी (आलोचना के भाव होने से) मृत्यु हो जाने पर आराधक ही होते। इसीलिए यह अर्थ विशेष संगत लगता है तथा इस अर्थ के करने से जो लोग - 'कारण से नदी उतरना आदि प्रथम महाव्रत के अपवाद बताये हैं। उसी तरह यह दूसरे महाव्रत का अपवाद है।' ऐसा कहते हैं वो भी ठीक नहीं जचता है। क्योंकि अपवाद, अप्रायश्चित्त और सप्रायश्चित दोनों प्रकार के होते हैं। अपवाद अप्रायश्चित्त जैसे - जिस मकान में कच्चे पानी, गर्म पानी, मदिरा आदि के घड़े पड़े हों वहाँ साधु को नहीं रहना चाहिए। कारण से एक दो रात्रि रह सकता है। विशेष रहने पर छेद अथवा तप रूप प्रायश्चित्त आता है (वृहत्कल्प सूत्र उद्देशक २)। अपवाद सप्रायश्चित्त जैसे उपयोग पूर्वक असत्य आदि बोलने का निशीथ, दशवैकालिक आदि सूत्रों में प्रायश्चित्त तथा निषेध किया है (निशीथ सूत्र उद्देशक २ सूत्र १९, दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ७ गाथा १)। सप्रायश्चित्त होने से बिना प्रायश्चित्त लिए आराधक नहीं हो सकता यथा - 'वैक्रिय करने वाला मुनि।' इसलिए इसे दूसरे महाव्रत का अपवाद सूत्र भी नहीं कह सकते। अपवाद का सेवन कारण से ही किया जाता है तो भी उसको प्रायश्चित्त तो है ही। क्योंकि ठाणांग सूत्र दसवां ठाणा तथा भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ७ में दोष लगने के १० कारणों में आपत्ति को भी बताया है। सत्यभाषी आदि का अल्पबहुत्व एएसि णं भंते! जीवाणं सच्चभासगाणं, मोसभासगाणं, सच्चामोसभासगाणं, असच्चामोसभासगाणं, अभासगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सच्चभासगा, सच्चामोसभासगा असंखिज गुणा, मोसभासगा असंखिज गुणा, असच्चामोसभासगा असंखिज गुणा, अभासगा अणंत गुणा॥ ४०४॥ ॥पण्णवणाए भगवईए एक्कारसमं भासापयं समत्तं॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सत्यभाषी, मृषाभाषी, सत्यमृषाभाषी, असत्यामृषाभाषी और अभाषी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव सत्यभाषी हैं, उनसे सत्यामृषाभाषी असंख्यात गुणा हैं, उनसे मृषाभाषी असंख्यात गुणा हैं, उनसे असत्यामृषा भाषी असंख्यातगुणा हैं और उनसे अभाषी (नहीं बोलने वाले) जीव अनन्त गुणा हैं। ॥ प्रज्ञापना सूत्र का ग्यारहवां भाषापद समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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