Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 405
________________ ३९२ प्रज्ञापना सूत्र योजन के श्रेणी खण्ड पर एक-एक बेइन्द्रिय को रखने से प्रतर पूरा भरता है। अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने श्रेणिखंड पर यदि रखना माना जावे तो एक असंख्यातवां भाग कम पूरे प्रतर की श्रेणियों के प्रदेश तुल्य बेइन्द्रिय के बद्ध औदारिक शरीर मानना पड़ेगा। अंगुल के असंख्यातवें भाग का प्रतर खण्ड. मानने पर यह बाधा नहीं आती है। क्योंकि नंदी सूत्र में - 'अंगुल सेढिमिते ओसप्पिणिओ असंखेज्जा' कहा है। अर्थात् 'अंगुल जितनी श्रेणि में भी असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के समय प्रमाण आकाश प्रदेश होते हैं।' ऐसी अंगुल के असंख्यातवें भाग (आवलिका समय तुल्य) जितना चौरस प्रतर खण्ड मानने पर यदि उन की एक श्रेणि बनाई जाय तो वह श्रेणि असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन जितनी हो जायेगी। इससे दोनों प्रतर के उत्तरों में समानता होकर संगति हो जायेगी। टीकाकार अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप श्रेणी खण्ड पर एक बेइन्द्रिय को रखते हुए पूरा प्रतर भरना कहते हैं। परन्तु ऐसा करने से तो आधा प्रतर भी नहीं भरता है। जैसे असत् कल्पना से एक श्रेणी के प्रदेश ६५५३६ है। अतः सम्पूर्ण प्रदेश लाना हो तो एक श्रेणी के जितने प्रदेश हैं उनको उतने से ही गुणा करने पर प्रतर के प्रदेश आ जाते हैं तथा प्रतर के प्रदेशों को श्रेणी के प्रदेशों से गुणा करने पर उनके घन प्रदेश आ जाते हैं। प्रतर के प्रदेश ६५५३६x६५५३६-४२९४९६७२९६ । बेइन्द्रिय के बद्ध जीव १८२१८९०८ प्रदेश जितने। एक श्रेणी के वर्गमूल का योग २७८ प्रदेश (इतनी श्रेणियाँ लेना)। एक श्रेणी के प्रदेशों (६५५३६) को प्रतर के प्रदेशों में रखने पर ४२९४९६७२९६ - १८२१८९०८-२२५ प्रतर व कुछ बचते हैं। अतः वर्ग की पूरी गणित के लिए २२५ प्रतर मान लें तो १५ प्रतर लम्बे चौड़े चौरस (वर्ग) प्रतर पर एक एक बेइन्द्रिय को रखे तो प्रतर पूरा भर सकता है। यदि श्रेणी पर ही रखना चाहे तो एक श्रेणी के असंख्यातवें भाग कम ऐसे २२५ प्रतर लम्बी श्रेणी जो वास्तव में असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन जितनी लम्बी हो जाती है। ऐसी श्रेणियों पर बिठाने से यद्यपि प्रतर पूरा भर जाता है तथापि मूल पाठ में आये हुए प्रतर रूप अंगुल का असंख्यातवां भाग बराबर नहीं बैठ सकता। अतः एक श्रेणी के प्रथम वर्गमूल के एक असंख्यातवें भाग कम ऐसे प्रथम वर्ग मूल के २२५ प्रदेश वाले (असत् कल्पना से) प्रतर रूप अंगुल के असंख्यातवें भाग पर (असत् कल्पना से) १५ प्रतर लम्बे १५ प्रतर चौड़े प्रतर खंड पर) एक बेइन्द्रिय को रखने पर प्रतर पूर्ण भर जाता है। शंका - अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्ड में असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन जितनी लम्बी श्रेणी कैसे बन सकती है? ___समाधान - प्रतर रूप अंगुल के चौथे असंख्यात (आवलिका के समय) जितने टुकड़े किये जाय उनमें से एक टुकड़ा जो अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना है उतना लम्बा चौड़ा क्षेत्र लिया। उस एक भाग में भी असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जितनी श्रेणियाँ हैं। उनमें से एक आवलिका जितने श्रेणी खण्डों को उठाकर लम्बी पंक्ति में रखेंगे तो वह श्रेणी एक अंगुल जितनी लम्बी हो जायेगी। इसी प्रकार पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी जितने समय तुल्य श्रेणी खण्डों को उठाकर एक लम्बी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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