Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 404
________________ बारहवाँ शरीर पद - बेइन्द्रिय आदि के बद्ध-मुक्त शरीर इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों के विषय में समझ लेना चाहिये । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में तीन विकलेन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों का कथन किया गया है । तीन विकलेन्द्रिय जीवों में तीन शरीर पाये जाते हैं- औदारिक, तैजस और कार्मण । बेइन्द्रिय में बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा समुच्चय जीव की तरह कह देना चाहिए। क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ होती हैं उनमें जितने आकाश प्रदेश होते हैं उनके बराबर जानना चाहिए। श्रेणियों का परिमाण निश्चय करने के लिए असंख्यात कोटि-कोटि (कोड़ाकोड़ी) योजन परिमाण सूची लेना चाहिए। अथवा एक श्रेणी में जितने प्रदेश होते हैं उनके असंख्यात वर्ग मूल होते हैं। उन वर्गमूलों को जोड़ने से जो प्रदेश राशि आवे उसे परिमाण सूची लेना चाहिए। उदाहरण के लिए श्रेणी में असंख्यात प्रदेश होने पर भी असत्कल्पना से ६५५३६ प्रदेश माने जायं । उनका प्रथम वर्गमूल २५६, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा वर्ग मूल ४ और चौथा वर्गमूल २ है । इन्हें जोड़ने से २७८ हुए। इस तरह श्रेणी के असंख्यात वर्गमूलों को जोड़ने से जो प्रदेश राशि आवे उसे परिमाण सूची लेनी चाहिये । एक प्रदेशी श्रेणी रूप प्रतर के अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खंड कर, एक-एक बेइन्द्रिय जीव द्वारा एक एक खंड आवलिका 'असंख्यातवें भाग में निकाला जाय तो सारा प्रतर सभी बेइन्द्रिय जीवों से असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी परिमाण काल में निकलता है । इसी तरह बेइन्द्रिय के बद्ध तैजस और बद्ध कार्मण शरीर कह देना चाहिए। तेइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय के बद्ध औदारिक, बद्ध तैजस और बद्ध कार्मण शरीर भी बेइन्द्रिय की तरह कह देना चाहिए। .......... बेइन्द्रिय के औदारिक बद्ध - 'असंख्यात श्रेणी वर्गमूल' जितने बताये हैं । यहाँ सभी (असंख्यात) वर्गमूलों की जोड़ (योग) नहीं बताई है । परन्तु पूर्वापर संबंध को एवं पूर्वाचार्यों द्वारा की हुई व्याख्याओं को देखते हुए 'सभी वर्गमूलों की जोड़ करना' ऐसा अर्थ करना उचित लगता है । जैसे'एगi' पुहुत्तं' में ' अनेक' अर्थ नहीं लेकर 'सभी' अर्थ लिया है। अन्य प्रकार से बेइन्द्रिय जीवों के औदारिक बद्ध शरीर - आगम के मूल पाठ में बेइन्द्रिय जीवों के औदारिक बद्ध शरीरों को प्रतर क्षेत्र से अपहार कराने का पाठ दिया है। जिसका अर्थ टीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरिजी ने 'अंगुलमात्रस्थप्रतरस्थ - एक प्रादेशिक श्रेणि रूपस्य असंख्येय भाग प्रति भाग प्रमाणेन खण्डेन ' करके प्रतर खण्ड को श्रेणि खंड रूप ही माना है, जो ऊपर के आगम पाठ के साथ संगत नहीं होने से उचित नहीं है। क्योंकि बेइन्द्रिय जीवों के औदारिक शरीर के बद्ध प्रतर के असंख्यातवें भाग (असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन रूप ) में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश तुल्य है । एक श्रेणी के असंख्यात वर्ग मूलों के योग रूप असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश तुल्य हैं । इस दृष्टि से श्रेणि के प्रथम वर्गमूल के लगभग (असंख्यातवां भाग कम) प्रदेशों पर अर्थात् असंख्य कोड़ाकोड़ी ३९१ 6040 इतना विशेष है कि तेइन्द्रिय के बद्ध औदारिक शरीर में बेइन्द्रिय की अपेक्षा असंख्यात कोटि-कोटि योजन क्षेत्र अधिक लेना चाहिए और तेइन्द्रिय की अपेक्षा चउरिन्द्रिय में असंख्यात कोटि-कोटि योजन क्षेत्र अधिक लेना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414