Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बारहवाँ शरीर पद गयुकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों का कथन किया गया है। वायुकायिकों के औदारिक शरीर पृथ्वीकायिकों की तरह समझना चाहिये । वायुकायिकों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात हैं । काल से यदि प्रतिसमय एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाय तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल में उनका अपहरण हो अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग के जितने समय हैं उतने वायुकायिकों के बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। वायुकायिकों के चार भेद हैं। सूक्ष्म और बादर, इनके प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें बादर पर्याप्तक के सिवाय शेष तीन भेद प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश प्रदेश परिमाण है और जो बादर पर्याप्तक हैं वे प्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण है। इन तीन भेदों में वायुकायिकों के वैक्रिय लब्धि नहीं होती। बादर पर्याप्तक वायुकायिकों में भी असंख्यात भाग मात्रा में ही वैक्रिय लब्धि होती है। इस विषय में टीकाकार कहते हैं।
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"तिन्हं ताव रासीणं वेडव्विय लद्धी चेव नत्थि, बायर पज्जत्ताणं वि संखेज्जइभागमित्ताणं लद्धी अत्थि "
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इस प्रकार टीका में टीकाकार आचार्य मलय गिरि जी कहते हैं किन्तु टीकाकार का यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता है। उसका कारण इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय जीवों में पल्योपम के असंख्यातवें • भाग जितने काल में वैक्रिय नाम कर्म की उद्बलना हो जाती है तथा यदि २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक भी रहे तो भी एकेन्द्रिय में जाने वाले जीवों में सर्वाधिक तो तिर्यंच पंचेन्द्रिय और ज्योतिषी (देव-देवी) ही होते हैं । तो भी वैक्रिय नाम कर्म की सत्ता वाले - 'प्रतर के असंख्यातवें भाग' ही होते हैं । २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम में (उद्बलना काल यदि बड़ा भी होवे तो उत्कृष्ट स्थिति ले ली है) तो प्रतरं के असंख्यातवें भाग जितने जीव ही इकट्ठे हो पायेंगे। किन्तु पर्याप्त वायु काय तो 'असंख्य प्रतर' प्रमाण हैं। उसका संख्यातवां भाग भी असंख्य प्रतर रूप ही होता है। अतः इतने जीब तो हो ही नहीं सकते । इसलिए पर्याप्त बार वायुकाय वैक्रिय शरीरी (लब्धि वाले) स्वराशि ( पर्याप्त बादर वायुकाय की राशि) के असंख्यातवें भाग जितने ही मिलते हैं । उपर्युक्त आधार से भाग' ' कहना ही आगमज्ञ बहुश्रुत भगवन्तों को उचित ध्यान में आता है।
'पल्योपम का असंख्यातवां
उवलना का अर्थ - बंधी हुई कर्म प्रकृतियों के बंध एवं उदय के अयोग्य एकेन्द्रिय आदि स्थानों में लम्बे समय तक रहने से स्वतः उन कर्मों की स्थिति पूरी हो जाने से एवं उनका नया बंध नहीं होने से उन प्रकृतियों का सत्ता में से निकल जाना 'उद्वलन' कहलाता है।
अतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय परिमाण ही वायुकायिक जीवों में प्रश्न के समय वैक्रिय लब्धि वाले होते हैं, अधिक नहीं । वायुकायिक जीवों के मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक (सामान्य) मुक्त वैक्रिय शरीर की तरह कहना चाहिये । बद्ध तैजस और कार्मण शरीर बद्ध औदारिक की तरह और मुक्त, तैजस और कार्मण शरीर मुक्त औधिक (सामान्य) तैजस कार्मण शरीर की तरह ही कहना
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