Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 400
________________ बारहवाँ शरीर पद - पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर ३८७ पंचेन्द्रिय के वैक्रिय बद्धलक पहले वर्ग मूल के असंख्यातवें भाग जितने (कल्पना से चौथे भाग जितने) होने से प्रथम वर्ग मूल में ४ का भाग देने पर १०७३७४१८२४ इतने हुए। अतः इस प्रकार असत्कल्पना से संगति बराबर बैठ सकती है। पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर पुढवीकाइयाणं भंते! केवइया ओरालिय सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखिजा, असंखिजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा, सिद्धाणं अणंतभागो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. बद्ध और २. मुक्त। उनमें से जो बद्ध औदारिक शरीर हैं वे असंख्यात हैं और काल से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र से असंख्यात लोक परिमाण है। उनमें जो मुक्त शरीर हैं वे अनन्त हैं। काल से वे अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र से अनन्त लोक परिमाण है। वे अभव्यों से अनन्त गुणा हैं और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। पुढवीकाइयाणं भंते! केवइया वेउव्विय सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लंगा ते णं णत्थि। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा एएसिं चेव ओरालिया तहेव भाणियव्वा। एवं आहारग सरीरा वि। तेयाकम्मगा जहा एएसिं चेव ओरालिया। एवं आउकाइया तेउकाइया वि॥४१०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध शरीर हैं वे इनके नहीं होते। उनमें जो मुक्त शरीर हैं वे जिस प्रकार औदारिक शरीरों के विषय में कहा है उसी प्रकार कह देना चाहिये। इसी प्रकार आहारक शरीरों के विषय में भी कह देना चाहिये। तैजस और कार्मण शरीर इनके औदारिक शरीरों के अनुसार समझना चाहिये। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के और तैजस्कायिक जीवों के विषय में भी कह देना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिकों, अप्कायिकों और तैजस्कायिकों के बद्ध और मुक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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