Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 398
________________ बारहवाँ शरीर पद - असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त शरीर श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश हों, उतने ही नैरयिक जीवों बद्ध वैक्रिय शरीर होते हैं । रइयाणं भंते! केवइया आहारग सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, एवं जहा ओरालिए बद्धेल्लगा मुक्केल्लगा य भणिया तहेव आहारगा वि भाणियव्वा । तेयाकम्मगाईं जहा एएसिं चेव वेडव्वियाई ॥ ४०८ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के आहारक शरीर कितने कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों के आहारक शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. बद्ध और २. मुक्त। जिस प्रकार नैरयिकों के औदारिक बद्ध और मुक्त कहे गये हैं उसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में कह देना चाहिये । • नैरयिकों के तैजस और कार्मण शरीर वैक्रिय शरीरों के समान कहना चाहिये । विवेचन नैरयिकों के बद्ध आहारक शरीर होते ही नहीं क्योंकि उनमें आहारक लब्धि संभव. नहीं है। आहारक शरीर चौदह पूर्वधारी मुनियों को ही होता है। नैरयिकों के मुक्त आहारक शरीरों के विषय में पूर्वानुसार समझना चाहिये । असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त शरीर असुरकुमाराणं भंते! केवइया ओरालिय सरीरा पण्णत्ता गोयमा! जहा णेरइयाणं ओरालिय सरीरा भणिया तहेव एएसिं भाणियव्वा । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमारों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जैसे नैरयिकों के बद्ध और मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहा गया है उसी प्रकार असुरकुमारों के बद्ध मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहना चाहिये । *..................................... - Jain Education International ३८५ असुरकुमाराणं भंते! केवइया वेडव्विय सरीरा पण्णत्ता ? गोमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिज्जाओ सेढीओं पयरस्स असंखिज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुल पढम वग्गमूलस्स संखिज्जइभागो । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लगा तहा भाणियव्वा । आहारग सरीरगा जहा एएसिं चेव ओरालिया तहेव दुविहा भाणियव्वा, तेयाकम्मग सरीरा दुविहा वि जहा एएसिं चेव वेडव्विया, एवं जाव थणियकुमारा ॥ ४०९॥ For Personal & Private Use Only ◆........................66666666 www.jainelibrary.org

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