Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 387
________________ बारसमं सरीरपयं बारहवाँ शरीर पद उक्खेवो (उत्क्षेप-उत्थानिका) - अवतरणिका - इस बारहवें पद का नाम "शरीर पद" है। शरीर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है। 'शीर्यते प्रतिक्षणं विशशरुभावं विभर्ति इति शरीरम्।' अर्थात् - जो प्रतिक्षण विशरारुभाव - विनाशभाव को प्राप्त होता रहता है उसे शरीर कहते हैं। संसार दशा में शरीर के साथ जीव का अतीव निकट और निरन्तर सम्पर्क रहता है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति मोह ममत्व के कारण ही कर्मबन्ध होता है। अतएव शरीर के विषय में जानना आवश्यक है। शरीर क्या है ? आत्मा की तरह अविनाशी है या नाशवान् ? इसके कितने प्रकार हैं ? इन पांचों प्रकारों के बद्ध-मुक्त शरीरों के कितने-कितने परिमाण में है ? नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक किसमें कितने शरीर पाये जाते हैं ? आदि आदि। ___ शरीर के लिए दो प्रकार का कथन मिलता है-यथा-"शरीरम् व्याधि मन्दिरम्" अर्थात् शरीर रोगों का घर है। एक शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम राजि हैं और पांच करोड़ अड़सठ लाख निण्णाणु हजार पांच सौ चौरासी (अथवा पिचासी) रोग भरे हुए हैं एक रोम के ऊपर देढ रोग से अधिक हिस्से में : आता है। जब तक यह रोग दबे पड़े हैं तब तक शरीर की कुशलता है। दूसरी तरफ कहा गया है कि - "शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनम्" अर्थात् - धर्म करणी करने का पहला साधन शरीर है। इसीलिए ज्ञानियों का कथन है कि जब तक शरीर स्वस्थ है तब तक धर्म करनी कर लेनी चाहिए। जैसा कि कहा है - जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्डई। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे॥३६॥ जब लग जरा न पीडती, जब लग काय नीरोग। इन्द्रियाँ हीणी ना पड़े, धर्म करो शुभ जोग॥ इसी हेतु से शास्त्रकार ने इस बारहवें शरीर पद की रचना की है। प्रज्ञापना सूत्र के ग्यारहवें पद में जीवों की सत्य आदि भाषाओं के भेद बताये गये हैं। भाषा शरीर के अधीन है क्योंकि 'शरीर प्रभवा भाषा' - भाषा शरीर से उत्पन्न होती है ऐसा कहा गया है। अन्यत्र भी कहा गया है कि -'गिण्हइ काइएणं, णिस्सरइ तह वाइएणं जोएणं'-भाषा योग्य पुद्गल काया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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