Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 391
________________ ३७८ प्रज्ञापना सूत्र बद्धेल्लया ते णं असंखिजा, असंखिजाहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिजा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, अभवसिद्धिएहिंतो अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। कठिन शब्दार्थ - बद्धेल्लया - बद्ध, मुक्केल्लया - मुक्त, अवहीरंति - अपहृत होते हैं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? . उत्तर - हे गौतम! औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं - १. बद्ध और २. मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, काल से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों से अपहृत होते हैं, क्षेत्र से असंख्यात लोक परिमाण है। उनमें जो मुक्त शरीर हैं वे अनन्त हैं। काल से वे अनन्त उत्सर्पिणियों और अनन्त अवसर्पिणियों के समयों से अपहृत होते हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक परिमाण है। द्रव्य से वे अभव्य जीवों से अनन्त गुणा हैं और सिद्ध भगवन्तों से अनन्तवें भाग हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बद्ध और मुक्त औदारिक शरीर का परिमाण बताया गया है। प्रश्न - बद्ध शरीर किसे कहते हैं ? उत्तर - जीव द्वारा जो शरीर अभी ग्रहण किये हुए हैं, वे बद्ध शरीर कहलाते हैं। प्रश्न - मुक्त शरीर किसे कहते हैं ? उत्तर-जिन शरीरों को जीव ने पूर्व भवों में ग्रहण करके छोड़ दिये हैं, वे मुक्त शरीर कहलाते हैं। शंका - औदारिक शरीरधारी जीव अनंत हैं फिर भी बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात ही क्यों कहे गये हैं? समाधान - औदारिक शरीरधारी जीव दो प्रकार के होते हैं - १. प्रत्येक शरीरी और २. अनन्तकायिक। प्रत्येक शरीरी जीवों का औदारिक शरीर अलग-अलग होता है। किन्तु जो अनन्तकायिक होते हैं उनका औदारिक शरीर अलग-अलग नहीं होता। अनन्तानंत जीवों का एक ही औदारिक शरीर होता है। इसलिए औदारिक शरीरधारी जीव अनन्त होते हुए भी उनके शरीर असंख्यात ही कहे गये हैं। काल की अपेक्षा से बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात उत्सर्पिणियों और असंख्यात अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक औदारिक शरीर का अपहरण किया जाय तो समस्त औदारिक शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां व्यतीत हो जाय। क्षेत्र की अपेक्षा बद्ध औदारिक शरीर असंख्यात लोक परिमाण है इसका तात्पर्य यह है कि अगर समस्त बद्ध औदारिक शरीरों को अपनी अवगाहना से अलग-अलग आकाश प्रदेशों में स्थापित किया जाय तो उन शरीरों से असंख्यात लोकाकाश व्याप्त हो जाय। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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