Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३८०
प्रज्ञापना सूत्र
नीचे से कुछ कम सात रज्जु का है। मध्य में एक रज्जु है। ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक के बिलकुल मध्य में पांच रज्जु है और ऊपर एक रज्जु विस्तार पर लोक का अन्त होता है। रज्जु का परिमाण स्वयम्भूरमण समुद्र की पूर्वतटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी पश्चिम वेदिका के अंत तक समझना चाहिये। इतनी लम्बाई-चौड़ाई वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रख कर नाचते हुए पुरुष के समान है। इस कल्पना से त्रसनाडी के दक्षिणभागवर्ती अधोलोकखण्ड को (जो कि कुछ कम तीन रज्जु विस्तृत है और सात रज्जु से कुछ अधिक ऊँचा है) लेकर त्रसनाडी के उत्तर पार्श्व से, ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर करके इकट्ठा रख दिया जाय, फिर ऊर्ध्वलोक में त्रसनाडी के . दक्षिण भागवर्ती कूपर (कोहनी) के आकार के जो दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक कुछ कम साढ़े तीन रज्जु ऊँचे होते हैं, उन्हें कल्पना में लेकर विपरीत रूप में उत्तर पार्श्व में इकट्ठा रख दिया जाए। ऐसा करने से नीचे का लोकार्ध कुछ कम चार रज्जु विस्तृत और ऊपर का अर्ध भाग तीन रजु विस्तृत एवं कुछ कम सात रज्जु ऊँचा हो जाता है। तत्पश्चात् ऊपर के अर्ध भाग को कल्पना में लेकर नीचे के अर्धभाग के उत्तरपार्श्व में रख दिया जाए। ऐसा करने से कुछ अधिक सात रज्जु ऊँचा और कुछ कम सात रज्जु विस्तार वाला घन बन जाता है। इस प्रकार लोक को घनीकृत किया जाता है। जहाँ कहीं घनत्व से सात रज्जु प्रमाण की पूर्ति न हो सके, वहाँ कल्पना से पूर्ति कर लेनी चाहिए। सिद्धान्त (शास्त्र) में जहाँ कहीं भी श्रेणी अथवा प्रतर का ग्रहण हो, वहाँ सर्वत्र इसी प्रकार घनीकृत सात रज्जुपरिमाण लोक की श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए।
केवइया णं भंते! आहारग सरीरया पण्णता?
गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिय अत्थि, सिय णत्थि। जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया, तहेव भाणियव्वा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! आहारक शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं?
उत्तर - हे गौतम! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. बद्ध और २. मुक्त। उनमें से जो बद्ध हैं वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से लेकर तीन हजार तक) होते हैं। उनमें से जो मुक्त हैं वे अनंत हैं जिस प्रकार औदारिक के मुक्त शरीरों के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी कह देना चाहिये।
विवेचन - बद्ध आहारक शरीर कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते, क्योंकि आहारक शरीर का अन्तर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक का कहा गया है। यदि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org