Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 385
________________ ३७२ प्रज्ञापना सूत्र — चार भाषाओं के आराधक-विराधक कइ णं भंते! भासजाया पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि भासजाया पण्णत्ता। तंजहा- सच्चमेगं भासज्जायं, बिइयं मोसं भासज्जायं, तइयं सच्चामोसं भासजायं, चउत्थं असच्चामोसं भासजायं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! भाषा के कितने प्रकार कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! भाषा के चार प्रकार कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं- १. पहली सत्य भाषा २. दूसरी मृषा भाषा ३. तीसरी सत्यामृषा भाषा और ४. चौथी असत्यामृषा भाषा। .. इच्चेयाइं भंते! चत्तारि भासज्जायाई भासमाणे किं आराहए? विराहए?' गोयमा! इच्चेयाइं चत्तारि भासजायाइं आउत्तं भासमाणे आराहए, णो विराहए। तेणं परं अस्संजया अविरया अपडिहया अपच्चक्खायपावकम्में सच्चं वा भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोसं वा असच्चामोसं वा भासं भासमाणे णो आराहए, विराहए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन चार प्रकार की भाषाओं को बोलता हुआ जीव आराधक होता है या विराधक होता है? उत्तर - हे गौतम! इन चारों प्रकार की भाषाओं को उपयोग पूर्वक बोलने वाला जीव आराधक होता है, विराधक नहीं। इसके सिवाय अन्य जो असंयत, अविरत, पाप कर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला सत्य भाषा बोलता हुआ तथा मृषा भाषा, सत्याभाषा और असत्यामृषा भाषा बोलता हुआ जीव आराधक नहीं होता है, किन्तु विराधक होता है। . विवेचन - 'साधु उपयोग पूर्वक चारों भाषा बोलता हुआ आराधक है।' इसका अर्थ टीकाकार आदि तो - 'उपयोग पूर्वक अर्थात् असत्य आदि को असत्य आदि समझ कर पारधि (शिकारी) आदि के पूछने पर जान बूझ कर असत्य भाषा का प्रयोग करना' ऐसा करते है। किन्तु इस अर्थ की अपेक्षा से विचार करने से यह आगे कहा जाने वाला अर्थ विशेष संगत लगता है। वह अर्थ इस प्रकार है - 'उसका उपयोग (भाव) तो सत्य तथा व्यवहार भाषा बोलने का ही है तो भी अर्थात् सत्य तथा व्यवहार भाषा बोलने का उपयोग रखते हुए भी अनाभोग से चारों भाषा बोलने में आजाय तो भी वह आराधक है।' शास्त्रकार को भी यही मत अभिमत लगता है। क्योंकि यदि टीकाकार का मत अभिमत होता तो शास्त्रकार 'उपयोग पूर्वक' पद नहीं देते। क्योंकि जब उपयोग पूर्वक भी असत्य आचरण से आराधक होता है तो अनुपयोग से यदि असत्य आचरण हो जाय तो वे आराधक ही होने चाहिये। जैसे गौतम स्वामी का आनन्द श्रावक के यहाँ अनुपयोग से असत्य बोला जाना। इन्हें तो ध्यान में आ जाने से प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो गये यदि इस स्थान पर दूसरे साधु होते और उन्हें केवली आदि का संयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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