Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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णवमं जोणिपयं
नववां योनि पद उक्खेओ (उत्क्षेप-उत्थानिका) - इस नव पद का नाम "जोणिपयं" है। जिसकी संस्कृत छाया होती है - "योनि पद"। योनि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है। ___ "यु" मिश्रणे, इत्यस्य धातोः, युवन्ति भवान्तर संक्रमण काले तैजस कार्मण शरीरवन्तः सन्तो जीवा औदारिक आदि शरीरप्रायोग्य पुद्गलस्कन्धैः मिश्री भंवन्ति अस्याम् इति औणादिके 'नि' प्रत्यये योनिः, जीवा नां उत्पत्ति स्थानं इत्यर्थः। ___ अर्थ - संस्कृत में "यु मिश्रणे" धातु है। मिश्रण शब्द का अर्थ है एक दूसरे में मिलाना, सम्मिलित करना। जीव जब एक भव का आयुष्य पूरा करके दूसरे भव में जाता है तब औदारिक, वैक्रिय और आहारक ये तीन शरीर तो इसी भव में यहीं छूट जाते हैं। परन्तु तैजस् और कार्मण शरीर तो अनादि काल से जीव के साथ में लगे हुए हैं और भवान्तर में जाते हुए जीव के साथ में जाते हैं। सिर्फ मोक्ष में जाने वाले जीव के पांचों शरीर यहीं छूट जाते हैं। जो जीव मरकर नरक गति और देव गति में उत्पन्न होता है तब तैजस और कार्मण शरीर को वैक्रिय शरीर के साथ मिश्रित करता है और जो जीव तिर्यंच तथा मनुष्य गति में जाता है, वह अपने तैजस और कार्मण शरीर को औदारिक शरीर के साथ मिश्रित करता है। इस मिश्रण को "योनि" कहते हैं।
यह औपचारिक अर्थ है। वास्तव में तो ऋजु सूत्र आदि नयों से - 'उत्पति स्थान पर जो पुद्गल होते हैं उनको सर्व प्रथम ग्रहण करे वैसी योनि होती है।' जैसे शीत पुद्गल ग्रहण करने पर शीत योनि होती है। इस प्रकार अन्य योनियाँ भी समझना चाहिये। जैसे नैरयिकों के उत्पत्ति स्थान (कुम्भियाँ) और देवों के उत्पत्ति स्थान (शय्याएं) सचित्त पृथ्वीकाय की होती है तथापि इनकी योनियाँ अचित्त बताई गई है। वह अवगाढ़ क्षेत्र के अन्दर रहे हुए पुद्गलों के ग्रहण करने की अपेक्षा से समझना चाहिये।
योनि का अर्थ है जीव की उत्पत्ति का स्थान एक योनि में अनेक प्रकार के जीव (अनेक कुल) पैदा हो सकते हैं - जैसे कि गाय, भैंस आदि का गोबर (पोठा) एक योनि है, उसमें लट, गिंडोला, बिच्छू आदि अनेक कुल पैदा हो सकते हैं।
मूल में मुख्य रूप से नौ प्रकार की योनियाँ हैं - यथा शीत, उष्ण, शीतोष्ण (मिश्र)। तथा सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित (मिश्र)। संवृत्त, विवृत्त, संवृतविवृत्त (मिश्र)। इन नौ प्रकार की मुख्य योनियों से सब जीवों की ८४ लाख जीव योनियाँ बनती हैं। इसके सिवाय कर्म भूमिज मनुष्यों के उत्पत्ति स्थान का
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