Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 373
________________ ३६० प्रज्ञापना सूत्र परम्परावगाढ़ पुद्गल ग्रहण नहीं किये जाते। अनंतरावगाढ़ अणु (थोड़े प्रदेश वाले) और बादर (बहुत प्रदेश वाले) दोनों तरह के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं। ये अणु बादर पुद्गल ऊपर के, नीचे के और तिरछे के ग्रहण किये जाते हैं। ये द्रव्य अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण योग्य होते हैं। इन्हें प्रथम, द्वितीय आदि समयों में तथा अन्त समय में भी ग्रहण किया जाता है। ये पुद्गल स्व विषय यानी श्रोत्रेन्द्रिय के विषय होने पर ग्रहण किये जाते हैं तथा आनुपूर्वी से यानी क्रम से ग्रहण किये जाते हैं अर्थात् जो समीप होते हैं उन्हें पहले व उनसे आगे के पुद्गलों को बाद में ग्रहण किया जाता है तथा नियमपूर्वक छहों दिशाओं से आये हुए पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं। पुट्ठा ओगाढ आदि चौदह बोलों का अर्थ इस प्रकार है १. पुट्ठा (स्पृष्ट) - आत्म-प्रदेशों के साथ स्पर्श में आये हुए पुद्गल। २. ओगाढा (अवगाढ) - आत्मा के प्रदेशों का अवगाहन आकाश के जितने प्रदेशों में है, उन्हीं प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुद्गलों का ग्रहण होना। पूरा शरीर जितना क्षेत्र 'अवगाढ़' में ले सकते हैं। ३. अन्तरावगाढ़ - स्व स्व अवगाहित प्रदेशों का ग्रहण समझना अर्थात् स्वर यंत्र की जगह से ही लेना (जहाँ से निस्सरण होता है - वहीं से लेना)। हाथ, पैर आदि दूसरी जगह के प्रदेशों से नहीं लेना। 'कागलिया' भी भाषा बोलने का एक यंत्र है। इसके आगे पीछे होने से गले में खरखराहट आदि होकर स्वर बिगड़ जाता है। ४-५. अणु बादर - चाहे वे स्कन्ध कम प्रदेश वाले हों या अधिक प्रदेशों वाले हों - परन्तु अनन्त प्रदेशी स्कन्धों (उससे प्रायोग्य छोटे-बडे) को ग्रहण करती है। सूक्ष्म स्कन्ध होने पर भी मेदे के छोटे बड़े कणवत् अणु-बादर। ६-७-८. ऊर्ध्व, अधः तिर्यग् दिशा से पुद्गल ग्रहण करना-स्वरयंत्र असंख्य प्रदेशावगाढ़ होने से उसके तीन विभाग करना- उन तीनों विभाग की दिशाओं से भाषा के योग्य पुद्गल ग्रहण करना। ऊर्ध्व, अधः एवं तिर्यग् ग्रहण में तो - 'अवगाहित शरीरस्थ जीव प्रदेशों की ऊर्ध्वादि दिशा से भाषा के पुद्गल ग्रहण करना बताया है।' . ९-१०-११. आदि, मध्य, अन्त में ग्रहण - भाषा बोलने के असंख्य समय के अन्तर्मुहूर्त के काल के तीन विभाग करना - उसमें आदि में, मध्य में तथा अन्त में ग्रहण करता है। १२. आनुपूर्वी से - अनन्तरावगाढ़ क्षेत्र में अनन्त वर्गणाओं के जो असंख्यात प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध रहे हुए हैं। उनमें से भाषा के योग्य द्रव्य जिस अनुक्रम में ग्रहण करने हो-वह अनुक्रम 'आनुपूर्वी' से समझना। भाषा वर्गणा के पुद्गल आत्मावगाढ़ हो जाने पर भी जिस भाषा यंत्र से वे ग्रहण किये जाते हैं। उनमें भी पहले समीप वाले बाद में उसके आगे वालों का ग्रहण करता है। अतः 'आनुपूर्वी' शब्द देने की आवश्यकता रहती है। आनुपूर्वी में यहाँ काल की अपेक्षा क्रम समझना। क्षेत्र वही होने पर भी अमुक पुद्गल प्रथम समय में ग्रहण करने के, अमुक द्वितीय समय में ग्रहण करने के इत्यादि रूप से जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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