Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ग्यारहवाँ भाषा पद - भाषा द्रव्यों के भेद .
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विवेचन - उक्त पांच प्रकार के भेद से भिन्न (अलग-अलग) हुए द्रव्यों का अल्प बहुत्व१. सब से थोड़े उत्करिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य २. उनसे अनुतटिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा, ३. उनसे चूर्णिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा ४. उनसे प्रतर भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा ५. उनसे खंड भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा।
भाषा के निस्सरित पुद्गल जो प्रथम समय में वचन योग से निकलते हैं, उनका तो ५ प्रकार का भेद होता ही है। शेष समयों में निश्चित नहीं है। परन्तु जब जब भेदित होते हैं तब तब ५ प्रकार से भेदित होते हैं। जो शब्द जितने तीव्र प्रयत्न से बोले जाते हैं वे उतने ही अधिक खण्डों में विभक्त होते हैं।
णेरइए णं भंते! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गिण्हइ ताई किं ठियाई गिण्हइ, अठियाई गिण्हइ? - गोयमा! एवं चेव, जहा जीवे वत्तव्वया भणिया तहा णेरइयस्स वि जाव अप्पाबहुयं। एवं एमिंदियवज्जो दंडओ जाव वेमाणिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करता है तो क्या . स्थित (गति रहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित (गति सहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है? .. उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार औधिक जीव के विषय में वक्तव्यता कहीं है उसी प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में यावत् अल्पबहुत्व तक कह देना चाहिये। इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर बाकी सब दण्डक यावत् वैमानिकों तक कह देना चाहिये।
जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गिण्हंति ताई किं ठियाई गिण्हंति, अठियाई गिण्हंति?
गोयमा! एवं चेव पुहत्तेण वि णेयव्वं जाव वेमाणिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करते हैं तो क्या स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं ?
• उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार एक वचन में कहा है उसी प्रकार बहु वचन में भी नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों पर्यंत समझ लेना चाहिये।
जीवे णं भंते! जाई दव्वाइं सच्चभासत्ताए गिण्हइ ताई किं ठियाइं गिण्हइ, अठियाइं गिण्हइ?
गोयमा! जहा ओहियदंडओ तहा एसो वि, णवरं विगलिंदिया ण पुच्छिति।
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