Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ग्यारहवाँ भाषा पद - भाषा द्रव्यों के विभिन्न रूप
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काल की अपेक्षा पहले पीछे का क्रम है - वह 'आनुपूर्वी' शब्द से कहा गया है जैसे कुंजड़े के सब्जी बेचने में दृष्टि-आज बेचने की, कल बेचने की इस तरह।
१३. स्व विषय का लेवे - भाषा योग्य वर्गणा सभी आकाश प्रदेशों पर सभी वर्गणाएं होने पर भी भाषा वर्गणा के पुद्गल ही ग्रहण करना।
१४. नियमा छह दिशा से - अवगाहित छहों दिशाओं से अवगाहना क्षेत्र में आये हुए पुद्गलों का ग्रहण करना बताया है।
जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गिण्हइ ताई किं संतरं गिण्हइ, णिरंतरं गिण्हइ?
गोयमा! संतरं वि गिण्हइ, णिरंतरं वि गिण्हइ। संतरं गिण्हमाणे जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखिज्ज समए अंतरं कट्ट गिण्हइ, णिरंतरं गिण्हमाणे जहण्णेणं दो समए, उक्कोसेणं असंखिज्ज समए अणुसमयं अविरहियं णिरंतरं गिण्हइ।
कठिन शब्दार्थ - संतरं - सान्तर, णिरंतरं - निरन्तर।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करता है तो क्या वह उन्हें सान्तर ग्रहण करता है या निरन्तर ग्रहण करता है ?
उत्तर - हे गौतम! जीव उन द्रव्यों को सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है। सान्तर ग्रहण करता हुआ जीव जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है और निरन्तर ग्रहण करता हुआ जीव जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक अनुसमय (प्रतिसमय) अविरहित-बिना विरह के निरन्तर ग्रहण करता है।
- विवेचन - जीव जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करता है उन्हें सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है। यह अन्तर जघन्य एक समय का उत्कृष्ट असंख्यात समय का होता है। जब निरन्तर ग्रहण करता है तो जघन्य दो समय उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रति समय बिना व्यवधान (अन्तर) के लगातार ग्रहण करता है।
सान्तर-निरन्तर ग्रहण - जीव अमुक समय तक लगातार बोलता रहे तो उसे उन द्रव्यों को निरन्तर ग्रहण करना पड़ता है। यदि बोलना सतत् चालू न रखे तो सान्तर ग्रहण करता है। प्रत्येक अक्षर वाक्य आदि बोलने के बाद भाषा वर्गणा के द्रव्यों को ग्रहण करने में व्यवधान पड़ता ही है। व्यवहार में निरन्तर घण्टों तक बोलने वालों के बीच बीच में भी व्यवधान (अन्तर) समझना चाहिये।
जीवे णं भंते! जाई दव्वाइं भासत्ताए गहियाई णिसिरइ ताई किं संतरं णिसिरइ, णिरंतरं णिसिरइ?
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