Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ग्यारहवाँ भाषा पद – भाषा द्रव्यों के विभिन्न रूप
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जीवे णं भंते! जाईं दव्वाइं भासत्ताए गहियाइं णिसिरइ ताइं किं भिण्णाई णिसिरइ, अभिण्णाइं णिसिरइ ?
! भाई विणिसिरइ, अभिण्णाइं वि णिसिर । जाई भिण्णाइं णिसिरइ ताई अनंतगुणपरिवुड्डीए णं परिवुड्डमाणाइं लोयंतं फुसंति, जाई अभिण्णाइं णिसिरइ ताइं असंखिज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेयमावज्जंति, संखिज्जाई जोयणाई गंता विद्धंसमागच्छंति ॥ ३९८ ॥
कठिन शब्दार्थ - भिण्णाइं भिन्न- भेद प्राप्त-भेदन किये हुए को ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव भाषा के ग्रहण किये हुए जिन द्रव्यों को निकालता है क्या उन द्रव्यों को भिन्न निकालता है या अभिन्न निकालता है।
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उत्तर - हे गौतम! कोई जीव भिन्न द्रव्यों को निकालता है तो कोई अभिन्न ( भेदन नहीं किये हुए) द्रव्यों को निकालता है। जिन भिन्न द्रव्यों को निकालता है वे अनन्त गुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं तथा जिन अभिन्न द्रव्यों को निकालता है वे असंख्यात अवगाहन वर्गणा तक जा कर भेद को प्राप्त हो जाते हैं और फिर संख्यात योजनों तक जाकर विध्वंस - विनाश को प्राप्त हो जाते हैं।
विवेचन - भाषा रूप से ग्रहण किये हुए पुद्गल जीव भिन्न भी निकालता है और अभिन्न भ निकालता है। जो भिन्न निकालता है वे अनन्त गुण वृद्धि से बढ़ते हुए लोकान्त का स्पर्श करते हैं। जो अभिन्न निकालता है वे असंख्यात अवगाहना वर्गणा तक जाकर भिन्न होते हैं और वे भिन्न हुए पुद्गल संख्यात योजन जाकर नष्ट होते हैं।
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ओगाहणवग्गणाओ (अवगाहना वर्गणा ) एक एक भाषा द्रव्य के आधार भूत असंख्यात आकाशप्रदेश के क्षेत्र विभाग रूप अवगाहना - उसकी वर्गणा अर्थात् समूह। एक अंगुल जितने क्षेत्र में भी असंख्यात अवगाहना वर्गणा हो जाती है। इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिए बताया है कि - ‘संख्यात योजन तक जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं' अर्थात् - भेद प्राप्त
भाषा के योग्य श्राव्य
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(सुनने के योग्य) नहीं रहना ।
विध्वंस - तरंगित नहीं होना अर्थात् शब्द वर्गणा रूप में ही नहीं रहना, पूर्ण विध्वंस हो जाना। भेयमाज्जति - ' भेद को प्राप्त होना ।' यहाँ पर भेदित होने का अर्थ अन्य पुद्गलों को वासित करने की शक्ति कम हो जाना। किन्तु 'पांच प्रकार का भेद होना' ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिए। विद्धंसमागच्छंति - वासित करने की शक्ति पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना।
तीव्र मंद प्रयत्न - जिसमें योगों की शक्ति अर्थात् वीर्य का मन्द व्यापार हो उसे मंद प्रयत्न की
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