Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
0444.
स्थापन करवाने के आशय से सर्वज्ञ के मत से प्रतिकूल रूप से जो बोली जाती है जैसे कि - 'आत्मा नहीं है' अथवा 'वह एकान्त नित्य है' इत्यादि असत्य भाषा है तथा सत्य होते हुए भी दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाली विपरीत वस्तु के कथन से दूसरों को पीड़ा पहुँचाने का हेतु होने से या मुक्ति मार्ग की विराधना करने वाली होने से विराधनी और विराधक भाव वाली होने से मृषाभाषा कहलाती है।
प्रश्न - आराधनी-विराधनी सत्यामृषा भाषा कैसे कहलाती है?
उत्तर - जो आराधनी-विराधनी उभय रूप हो वह सत्यामृषा यानी जो भाषा आंशिक रूप से आराधनी और आंशिक रूप से विराधनी हो वह आराधनी-विराधनी कहलाती है। जैसे - किसी गांव या नगर में पांच बालकों का जन्म हुआ और यदि यह कहा जाय कि इस गांव या नगर में दस बालकों का जन्म हुआ है। वह स्थूल व्यवहार नय के मत से आराधनी-विराधनी भाषा कहलाती है क्योंकि पांच बालकों का जन्म हुआ है उतने अंशों में यथार्थता होने से आराधनी और दस पूरे नहीं होने से इतने अंश में अयथार्थता का संभव होने से विराधनी होती है। इस प्रकार आराधनी-विराधनी दोनों होने से सत्यमृषा कहलाती है।
प्रश्न - जो आराधनी न हो विराधनी भी न हो और उभय रूप भी न हो ऐसी भाषा कौनसी होती है?
उत्तर - जिसमें आराधनी के लक्षण नहीं होने से आराधनी नहीं है तथा जो विपरीत वस्तु के कथन के अभाव और परपीड़ा का हेतु नहीं होने से विराधनी भी नहीं है तथा जो अमुक अंश में संवाद-यथार्थता और अमुक अंश में विसंवाद-अयथार्थता के अभाव से आराधनी विराधनी भी न हो ऐसी भाषा असत्यामृषा समझनी चाहिए। जैसे-हे साधु! प्रतिक्रमण करो। स्थण्डिल का प्रतिलेखन करो। आदि व्यवहार साधक आमंत्रण आदि भेद वाली असत्यामृषा नामक चौथी भाषा है।
प्रज्ञापनी भाषा अह भंते! गाओ मिया पसू पक्खी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा?
हंता गोयमा! जा य गाओ मिया पसू पक्खी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा॥३७४॥
कठिन शब्दार्थ - गाओ - गाय, मिया - मृग, पसू - पशु, पक्खी - पक्षी, पण्णवणी - प्रज्ञापनी - अर्थ का प्रतिपादन करने वाली।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या गाय, मृग, पशु और पक्षी यह भाषा प्रज्ञापनी (अर्थ का प्रतिपादन करने वाली) है ? और यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है?
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