Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
बोलता है। प्रथम समय में वह भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर और दूसरे समय में उन्हें भाषा रूप में परिणत करके छोड़ता है।
भाषा रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गलों का भिन्न (भेदन करके) और अभिन्न (भेदन किये बिना) रूप से निकालना कहा गया है। इनके पांच भेद इस प्रकार हैं - १. खण्ड भेद २. प्रतर भेद ३. चूर्णिका भेद ४. अनुतटिका भेद ५. उत्करिका भेद।
१. खण्ड भेद - लोहा, ताम्बा, सीसा, सोना-चांदी आदि का टुकड़े रूप से जो भेद होता है वह खण्ड भेद हैं।
२. प्रतर भेद - बांस, बैंत, केले का वृक्ष और अभ्रक की प्रतर की तरह जो भेद होता है वह प्रतर भेद हैं।
३. चूर्णिका भेद - तिल, मूंग, उडद, पीपल, मिर्च, सूंठ आदि का चूर्ण रूप से जो भेद होता है वह चूर्णिका भेद हैं।
४. अनुतटिका भेद - कूप, तालाब, द्रह बावड़ी, पुष्करणी, सरोवर आदि का अनुतटिका रूप से जो भेद होता है वह अनुतटिका भेद है।
५. उत्करिका भेद - मसूर, मूंग, उडद, तिल की फली और एरण्ड बीज, ये सूखने पर फटकर इनमें से दाने उछल कर बाहर निकलते हैं।
उक्त पांच प्रकार के भेद से भिन्न (अलग-अलग) द्रव्यों का अल्प बहुत्व - १. सब से थोड़े उत्करिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य २. अनुतटिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा ३. चूर्णिका भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा ४. प्रतर भेद से भिन्न हुए द्रव्य अनन्त गुणा ५. खण्ड भेद से अलग हुए द्रव्य अनन्त गुणा हैं।
पहले चार प्रकार की भाषा बताई गयी है उनमें से साधु-साध्वी को दो प्रकार की भाषा बोलने की तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा है यथा - सत्या, असत्यामृषा भाषा तथा मिश्रभाषा (असत्यामृषा) और मृषा (असत्य भाषा) बोलने की अनुज्ञा नहीं है क्योंकि ये दोनों भाषाएं वस्तु स्वरूप का यथार्थ रूप से प्रतिपादन नहीं करती है। अतएव ये दोनों भाषाएं मोक्ष की विरोधिनी हैं।
पर्याप्तक-अपर्याप्तक भाषा कइविहा णं भंते! भासा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा भासा पण्णत्ता। तंजहा - पज्जत्तिया य अपज्जत्तिया य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! भाषा कितनी प्रकार की कही गयी है ?
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