Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
ग्यारहवाँ भाषा पद - भाषा द्रव्यों के विभिन्न रूप
३५१
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चौबीस दण्डक के जीव कौन कौनसी भाषा बोलते हैं इसका निरूपण किया गया है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों में सत्य भाषा, मृषा भाषा और सत्यामृषा इन तीन भाषाओं का निषेध किया गया है क्योंकि उनमें सम्यग् ज्ञान नहीं होता और न ही दूसरों को ठगने आदि का भी विचार होता। तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी यथावस्थित वस्तु के प्रतिपादन के अभिप्राय से सम्यक् (यथार्थ) नहीं बोलते और न ही दूसरों को ठगने के आशय से बोलते हैं किन्तु जब बोलते हैं तब क्रोधित अवस्था में या दूसरों को मारने के अभिप्राय से एक असत्यामृषा ही बोलते हैं अतः उनकी भाषा असत्यामृषा होती है। क्या सभी की एक असत्यामृषा भाषा ही होती है ? इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं-नहीं, वे शिक्षा आदि के सिवाय सत्य आदि भाषा नहीं बोलते हैं किन्तु तोता, मैना आदि शिक्षा पूर्वक संस्कार विशेष से या तथा प्रकार के क्षयोपशम की विशेषता से जाति स्मरण रूप या विशिष्ट व्यवहार की कुशलता रूप लब्धि की अपेक्षा सत्य आदि चारों भाषा बोलते हैं।
भाषा द्रव्यों के विभिन्न रूप जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गिण्हइ ताई किं ठियाइं गिण्हइ, अठियाई गिण्हइ?
गोयमा! ठियाइं गिण्हइ, णो अठियाइं गिण्हइ। कठिन शब्दार्थ - ठियाई - स्थित-गमन क्रिया रहित, अठियाई - अस्थित।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करता है, क्या वे स्थित (स्थिर) द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है?
उत्तर - हे गौतम! जीव स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है किन्तु अस्थित द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। . जाई भंते! ठियाइं गिण्हइ ताई किं दव्वओ गिण्हइ, खेत्तओ गिण्हइ, कालओ गिण्हइ, भावओ गिण्हइ?
- गोयमा! दव्वओ वि गिण्हइ, खेत्तओ वि गिण्हइ, कालओ वि गिण्हड, भावओ वि गिण्हइ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है उन्हें क्या द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र से ग्रहण करता है, काल से ग्रहण करता है या भाव से ग्रहण करता है? - उत्तर - हे गौतम! वह स्थित द्रव्यों को द्रव्य से भी ग्रहण करता है, क्षेत्र से भी ग्रहण करता है, . काल से भी ग्रहण करता है और भाव से भी ग्रहण करता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org